लेटेस्ट खबरें हिंदी में, अजब - गजब, टेक्नोलॉजी, जरा हटके, वायरल खबर, गैजेट न्यूज़ आदि सब हिंदी में
भारत में ऐसी क्रूरता कभी नहीं रही. बेशक पशुओं की बलि देने का चलन था. आदिवासियों में पशुओं का शिकार करने का रिवाज चला आ रहा था लेकिन इसके बावजूद भारत अपने स्वभाव में एक शांतिप्रिय देश रहा है. लोग पशुओं के संग-साथ अमन-चैन से रहते थे और पशुओं की जिंदगी के लिए लोगों के मन में सम्मान का भाव था. लेकिन बीते 50 सालों में ये सब कुछ बदल गया है. आज लोग पशुओं को या तो परेशानी का सबब समझते हैं या फिर उन्हें कोई वस्तु समझा जाता है. ऐसे में पशुओं के साथ हिंसा का बरताव हो तो कोई इसकी खास फिक्र नहीं करता. जहां तक पशुओं के साथ हिंसा के बरताव का सवाल है, आप क्या कहिएगा उस देश को जहां सरकार एकदम राजी-खुशी बताती हो कि हमारे निर्यात का 52 फीसदी मांस, मछली और चमड़ा है. भारत अंडों के निर्यात में भी अग्रणी देशों में शुमार है. बस यह चंद दशक पहले की ही तो बात है जब ज्यादातर गांवों और समुदायों के ग्रामदेव हुआ करते थे, माना जाता था कि ग्रामदेव या कह लें ग्रामदेवी एक खास इलाके की रक्षा करते हैं. ग्रामदेव/देवी का मंदिर होता था और यहां नियमित रूप से पूजा-प्रार्थना भी होती थी. इन देवों में कई ग्रामीणों के साथ-साथ पशुओं की भी रक्षा करते थे, पशु-जगत की भी नुमाइंदगी करते थे. कौन है कीटों की देवी? भ्रामरी को ततैयों और डंक वाले कीटों की देवी माना गया है. ये कीट देवी के शरीर से लिपटे रहते हैं. भ्रामरी को दुर्गा का अवतार समझा जाता है और देवी भागवत पुराण में इन देवी का वर्णन मिलता है. भ्रामरी देवी के मुख्य मंदिर त्रिस्रोत, जलपाईगुड़ी तथा नासिक में है. एक कथा आती है कि अरुणासुर ने हजारों साल तक ब्रह्मा की अराधना की. शुरुआती दस हजार साल उसने सूखे पत्ते खाकर बिताए. अगले दस हजार साल उसने सिर्फ जलाहार किया और इसके बाद के दस हजार सालों तक उसने सिर्फ वायु का सेवन करके खुद को जिंदा रखा. क्रमवार चौथे, दस हजार साल में उसने कुछ भी नहीं खाया-पीया. उसके शरीर से एक प्रकाश-पुंज निकला और वो प्रकाशपुंज पूरे विश्व को जलाने लगा. भगवान ब्रह्मा प्रकट हुए, कहा वत्स वर मांगो. अरुणासुर ने वर मांगा कि दो-पाए और चौपाए प्राणियों से मेरी रक्षा का वर दीजिए. ब्रह्मा ने कहा- तथास्तु! और अंतर्ध्यान हो गए. वर प्राप्त करने के बाद अरुणासुर ने अपने को अजेय मान लिया, उसने असुरों की सेना बनायी और देवताओं से युद्ध छेड़ दिया. इंद्र भय से कांपने लगे, वे देवताओं को साथ लेकर ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के पास पहुंचे. अरुणासुर ने चंद्र और सूर्य को परास्त करने के बाद देवताओं के निवास कैलाश पर्वत पर धावा बोल दिया था. भगवान शिव ने अपनी सेना के साथ उसका सामना किया लेकिन परास्त ना कर सके. शिव ने पार्वती से सहायता मांगी. पार्वती ने अपने स्वरूप का विस्तार किया, उन्होंने विकराल रूप धारण किया- देवी के एक हाथ में गदा, दूसरे में त्रिशूल, तीसरे हाथ में तलवार और चौथे हाथ में ढाल थी. देवी ने अपनी आंखें बंद की और ध्यान लगाया- उन्होंने छह पैर प्राणियों- ततैया, मधुमक्खी, हड्डा, दीमक तथा मकड़ी का आह्वान किया. ये प्राणि देवी की देह से भ्रामरी के रूप में प्रकट हुए और भ्रामरी ने इन छह पाए प्राणियों के सहारे असुरों का संहार कर दिया. छह पाए प्राणियों ने अरुणासुर की देह के हर हर हिस्से पर हमला किया और उसे क्षत-विक्षत कर दिया. बिच्छुओं की भी होती है पूजा बिच्छुओं की पूजा एक जमाने से चली आ रही है. बिच्छुओं की छाप वाली मुद्राएं सिंधु घाटी में मिली हैं. स्वर्ग को तमिल भाषा में बिच्छुओं का देश (पुथ थेल उलाकू) कहा जाता है. गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र नदी में एक उर्वशी या कह लें मयूरद्वीप है. वहां उमानंद मंदिर में देवी की मूर्ति बिच्छू के रूप में होती है. कर्नाटक के यादगिर में एक गांव है कंडाकूर. यहां ग्रामीण नागपंचमी को चेलिना जातरे (बिच्छुओं का पर्व) के रूप में मनाते हैं. गांव में बिच्छुओं की देवी कोंडाम्मई की पूजा होती है. इस मौके पर जीवित बिच्छुओं के साथ कुछ खेल-तमाशा भी होता है. दिलचस्प बात ये भी है कि ऐसे मौके पर बिच्छू ने किसी को डंक मारा हो- ऐसी बात सुनने को नहीं मिली. पास-पड़ोस के जिले और आंध्रप्रदेश तथा तेलंगाना से लोग बिच्छुओं की पूजा के इस मौके पर भागीदारी के लिए आते हैं. कोंडाम्मई देवी को दूध, नारियल तेल तथा साड़ी का चढ़ावा दिया जाता है. ये हैं बिच्छुओं की देवी दक्षिण कर्नाटक में बिच्छुओं से संबंधित एक देवी का नाम है चेलम्मा. देवी के भक्तों का मानना है कि चेलम्मा की आराधना करने पर बिच्छू डंक नहीं मारते. कोलार के कोलाराम्मा मंदिर की अधिष्ठात्री देवी हैं चेलम्मा. यहां जमीन में एक बहुत ही पुरानी हुंडी उकेरी हुई मिलती है. हुंडी में लोग सिक्के डालते हैं. सिक्के डालने की यह प्रथा हजारों साल से चली आ रही है. देव गोगाजी को जहर वीर गोग्गा, गुग्गा वीर, गुग्गा राना के नाम से भी पुकारा जाता है. गोगाजी लोकप्रचलित युद्ध-देव हैं. इनकी पूजा राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा तथा जम्मू के गांवों में सर्प-देवता के रूप में की जाती है. दंतकथा के मुताबिक गोगा का जन्म गुरु गोरखनाथ के आशीर्वाद से हुआ था और गऊ-सेवा करने के कारण उनका नाम गोगा पड़ा. मान्यता है कि उनका प्रादुर्भाव 12वीं सदी में हुआ. उनके राज्य का नाम बागड डेडगा था जो गंगानगर के नजदीक है. वे चौहान वंश के थे. गोगा अपने अनुयायियों की सांप, जहर तथा अन्य संकटों से रक्षा करते थे. गोगाजी हिन्दू थे लेकिन कई मुसलमान उनके भक्त थे. एक छोटी से भवन में गोगा जी का समाधि-स्थल है. भवन एक कमरे का है और उसके दोनों किनारों पर मीनार बनी है. भवन के बीचो-बीच समाधि-स्थल है. इसे बांस के सीखचों से घेरा गया है. पहचान के लिए नारियल, कुछ रंगीन धागे तथा मोरपंख लगाया गया है. शीर्ष पर नीली पताका फहराती है. दीवार पर बना हुआ काले रंग का सांप गोगाजी का प्रतीक है. राजस्थान के हनुमानगढ़ के गोगामेडी में एक मेला लगता है. यहां आपको लोग गले में सांप लपेटे घूमते मिल जायेंगे. गोगाजी की जन्मस्थली डेडरेवा तथा उसके आस-पास एक कथा प्रचलित है कि अगर कोई डेडरेवा के जोहर(एक बंजर भूमि जिसमें तालाब बना है) से डंठल भी उठा ले तो वह सांप में बदल जाता है. पंजाब के इलाके में गुग्गाजी की पूजा मार्रिस नाम के पूजा-स्थल पर होती है. मार्रिस चींटियों के बनाये ढूह से लेकर सिख गुरुद्वारा या फिर मस्जिद जितनी बड़ी इमारत हो सकता है. लोग अपने साथ चढ़ावा ले आते हैं और चढ़ावे को सांपों के रहने की जगहों पर रखते हैं. एक सर्पदेवी नगनचिया मा राठौड़ राजपूतों की कुलदेवी हैं. नगनचिया मा की देह का ऊपरी हिस्सा स्त्री जैसा है जबकि निचला हिस्सा सांप का. इस देवी का मुख्य मंदिर जोधपुर के निकट नागना में है. इस देवमूर्ति की स्थापना का श्रेय राव दाऊद को है. उन्होंने एक नीम के पेड़ के नीचे मूर्ति की स्थापना की थी. इस कारण नीम का पेड़ भी राठौड़ राजपूतों में पवित्र माना जाता है. इस देवी की पूजा गुजरात के खाखरेची में भी होती. यहां राठौड़ लोगों ने एक तालाब बनाया है. राठौड़ जिस भी गांव में रहते हैं वहां नगनचिया मा का मंदिर बना होता है. उत्तर-पूर्वी भारत तथा बंगाल में मनसा देवी की पूजा होती है. ये भी लोक-प्रचलित सर्पदेवी हैं. मनसा देवी की पूजा सांप-काटे के उपचार, सांप के भय से निवारण, छोटी चेचक तथा बड़ी चेचक से बचने, वंशवृद्धि तथा समृद्धि के लिए होती है. इन्हें विषहर, नित्य तथा पद्मावती के नाम से भी जाना जाता है. मनसा देवी मूल रुप से जनजातीय समुदायों की देवी हैं. हिन्दू देवमाला में मनसा देवी को 14 वीं सदी के आस-पास जगह मिली. मनसा का चित्रण एक ऐसी स्त्री के रुप में होता है जिसकी देह पर सांप लिपटे हैं. उन्हें कमल के फूल या फिर सर्प पर विराजता दिखाया जाता है. देवी के सिर पर सात फन वाले नाग का क्षत्र होता है. मनसा देवी को ‘एक आंख’ वाली देवी कहा जाता है, पूर्वोत्तर भारत के हजोंग जनजाति के बीच उन्हें ‘काणी देवी’ ( जिसे एक आंख से ना दिखायी दे) के नाम से पुकारा जाता है. कैसे हुआ देवी का जन्म? पुराणों में इस देवी के जन्म की कथा मिलती है. एक बार सांप तथा रेंगने वाले अन्य जीवों ने धरती पर बहुत उत्पात मचाया. तब कश्यप ने अपने मनस् तत्व से मनसा देवी की सृजना की. ब्रह्मा ने मनसा देवी को सांपों तथा रेंगने वाले अन्य प्राणियों की अधिष्ठात्री देवी बनाया. कुछ अन्य कथाओं में आता है कि मनसा देवी कश्यप मुनि तथा कद्रू की संतान हैं. कद्रू को सभी नागों की मां कहा जाता है. कथाओं में मनसा देवी की यह कहकर प्रशंसा की गई है कि शिव ने जब विषपान किया था तो उन्होंने शिव की प्राणरक्षा की थी. इसी कारण मनसा देवी का एक नाम विषहर भी है और उनकी इस रूप में पूजा होती है. आमतौर पर मनसा देवी की पूजा बगैर उनकी मूर्ति के होती है. पेड़ की डाली, मिट्टी के बर्तन या फिर मिट्टी के बने सांप को ही मनसा देवी मानकर पूजा कर ली जाती है. उत्तर बंगाल में मनसा देवी के मंदिर तकरीबन हर खेतिहर परिवार के घर के अहाते में बने मिलते हैं. मनसा की पूजा असम में भी होती है और ओजा-पली नाम का एक लोकनाट्य भी मनसा को समर्पित है. हिन्दू पंचांग में सावन महीने की नागपंचमी(जुलाई-अगस्त) को सांप की पूजा की जाती है- इसी दिन मनसा की भी विधि-विधान से पूजा होती है. बंगाल में स्त्रियां इस दिन उपवास रखती हैं और सांप की बांबी में दूध दिया जाता है. दक्षिण भारत में मुक्कामाला मंदिर में लोग मनसा देवी की पूजा करते हैं. यह आंध्रप्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले में है. हिन्दू-परंपरा की कथाओं में बगलामुखी का वर्णन एक ऐसी देवी के रूप में मिलता है जिसका सिर सारस (एक पक्षी) की तरह है. बगलामुखी काला जादू, जहर तथा मृत्यु की देवी मानी जाती हैं. बगलामुखी उन भावनाओं की अधिष्ठात्री देवी हैं जिनके सहारे हमें अपने से दूर रहने वाले प्रियजन के दुख-शोक या मृत्यु का आभास होता है. बगलामुखी पुरुषों को एक-दूसरे के उत्पीड़न के लिए उकसाती हैं. बगलामुखी पीले रंग के कपड़े पहनती हैं, उनके बाएं हाथ में उत्पीड़न के अस्त्र होते हैं और दाएं हाथ में शत्रु की जीभ. बगलामुखी के केश उनके कंधे से लेकर पीठ तक झूलते रहते हैं. उनके किरीट पर नवचंद्र तथा दो छोटे सारस बने होते हैं तथा मुकुट पर एक बड़ा सारस होता है जिसके पंख फैले होते हैं. बगलामुखी की कथा में आता है कि एक दफे मदन (मोह लेने वाला) नाम के असुर को सर्वज्ञानी और सर्वजित होने का वरदान प्राप्त हुआ. वो जो भी कहता वही सच हो जाता. अपनी इस ताकत के मद में चूर होकर वह अपने सारे विरोधियों को परास्त करने पर तुल गया. देवताओं ने बगलामुखी की अराधना की, उन्हें सहायता के लिए पुकारा. बगलामुखी ने मदन की जीभ खींच ली और उसकी बोलने की ताकत जाती रही. बगलामुखी को मुकदमों में जीत, सत्ताप्राप्ति तथा शत्रुओं के स्तंभन (रोक) के लिए पूजा जाता है. वाक्-शक्ति, स्मरणशक्ति तथा ज्ञान की वृद्धि के लिए भी बगलामुखी की पूजा होती है. बगलामुखी का मुख्य मंदिर पाटण के नेवार शहर, कांगड़ा घाटी तथा मध्यप्रदेश के दतिया में बना है. एक देवी ये भी एक देव ऐयरी कहलाते हैं. इनके सिर के ऊपर आंखें होती हैं. ये कुमाऊं की ग्रामदेवी हैं. इन्हें पशुओं का रक्षक माना जाता है. इनके दो सहायक सऊ और भऊ कुत्तों पर सवार होते हैं. इनका मुख्य मंदिर चंपावत के बयनधुरा में है. जुगलहाट-पंचेश्वर इलाके में चंपू की पूजा प्रचलित है. इन्हें पशुओं का रक्षक माना जाता है. इन्हें चढ़ावे के रुप में घंटी और दूध चढ़ाया जाता है. इनका मुख्य मंदिर पिथौड़ागढ़ के चौपखिया और चंपावत के चमदेवल में है. पशुओं की रक्षा करने वाले ग्रामदेवताओं की संख्या बहुत ज्यादा है. अगर आपको ऐसे किसी ग्रामदेवता की जानकारी हो तो उसके ब्योरे मुझे जरूर भेजिए.
from Latest News अभी अभी Firstpost Hindi Read Full Article
via Firstpost Rss