आंकड़े चाहे जो भी हों लेकिन बिहार में स्वच्छ भारत मिशन की सच्चाई कुछ और है

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुचर्चित और जोरशोर से शुरू किए गए अभियान- स्वच्छ भारत मिशन के तहत पूरे देश को खुले में शौच की समस्या से मुक्त कराने का अभियान जोरों पर है. हालांकि, तमाम दावों के बावजूद बिहार में इस दिशा में हुई प्रगति संतोषजनक नहीं नजर आ रही है. बिहार को खुले शौच से मुक्ति की दिशा में हो रहे कार्यों की सुस्ती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य की राजधानी पटना शहर में ही खुले में शौच के काफी प्रमाण आपको देखने को मिल जाएंगे. जहां राज्य सरकार का मकसद 2 अक्टूबर 2019 यानी महात्मा गांधी की 150वीं जयंती तक राज्य के सभी 38 जिलों को खुले में शौच से मुक्त करने का लक्ष्य हासिल करने का है, तो वहीं राज्य सरकार के संबंधित विभागों का दावा है कि यह लक्ष्य इस साल मार्च तक ही हासिल कर लिया जाएगा. खुले में शौच से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय लक्ष्य की समयसीमा भी 2 अक्टूबर 2019 ही तय की गई है. राज्य की राजधानी पटना और आसपास के इलाकों में ही है बुरा हाल स्वच्छ भारत मिशन की वेबसाइट के मुताबिक, ग्रामीण बिहार में फिलहाल शौचालय का कवरेज यानी इसकी पहुंच 99.36 फीसदी है. हालांकि, वेबसाइट पर उपलब्ध कराए गए ताजा आंकड़ों के मुताबिक, पटना के ग्रामीण इलाकों में खुले में शौच से मुक्ति का कवरेज का आंकड़ा सिर्फ 27.40 फीसदी है. पटना शहर में मौजूद पुरानी आर ब्लॉक-दीघा रेलवे लाइन पर बड़े पैमाने पर मल-मूत्र का दिखना काफी आम बात है. यह लाइन राज्य की राजधानी के सचिवालय, पुनाइचक, शिवपुरी और राजीव नगर इलाके से गुजरती है. यहां तक कि पटना के बाहरी इलाके खगौली यानी राजधानी से सटे दानापुर रेलवे स्टेशन वाले इलाके में झुग्गी बस्तियों में रहने वाले भी मोबाइल शौचालय का इस्तेमाल नहीं करते हैं. उनका इस तरह के शौचालय का इस्तेमाल नही करने की वजह भी बिल्कुल साफ है. खगौल इलाके में दानापुर रेलवे स्टेशन से सटे ओवरब्रिज के पास रहने वाले गणेश राम ने बताया, 'मोबाइल शौचालय से दुर्गंध आती रहती है और इसमें काफी मल भरा होता है.' जाहिर तौर पर ऐसी स्थिति में इन शौचालयों का इस्तेमाल करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन जैसा है. बिहार में अब तक पांच जिलों-सीतामढ़ी, रोहतास (सासाराम), बेगूसराय, कैमूर (भभुआ) और शेखपुरा को प्रशासन की तरफ से आधिकारिक तौर पर खुले में शौच से मुक्त घोषित किया चुका है. इसके अलावा, राज्य के तकरीबन एक दर्जन अन्य जिलों को भी जल्द खुले में शौच से मुक्त घोषित करने के लिए जोरशोर से प्रयास किए जा रहे हैं. 22 मार्च तक राज्य को खुले में शौच से मुक्त करने का दावा, लेकिन हकीकत कुछ और बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने हाल ही में पटना में एक कार्यक्रम में कहा कि राज्य को इस साल बिहार दिवस के आयोजन यानी 22 मार्च 2019 से पहले ही खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया जाएगा. हालांकि,  8 जनवरी 2018 तक के आंकड़े इस दावे के बिल्कुल अनुकूल नहीं नजर आते हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक खुले में शौच से मुक्ति के मामले में राज्य के कुछ जिलों का प्रदर्शन काफी सुस्त था. स्वच्छ भारत मिशन की वेबसाइट के होम पेज के मुताबिक, अरवल (3.13%), मधुबनी (5.17%), अररिया (8.22%), मधेपुरा (9.44%), समस्तीपुर (14.90%) में खुल में शौच से मुक्ति का कवरेज काफी कम है. ऐसे में इस बात को साफ तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता कि इन आंकड़ों के कारण पूरे राज्य के ग्रामीण इलाकों में खुले में शौच से मुक्ति को लेकर पेश किया गया 99.36 फीसदी का आंकड़ा संदेह पैदा करता है. अगर हम 8 जनवरी 2019 तक के आंकड़ों की बात करें तो अपनी तरफ से खुले में शौच से मुक्त घोषित किए गए कुल 18,703 गांवों में से सिर्फ 3,413 गांवों की इस संबंध में जांच और पुष्टि हो पाई है. बहरहाल, इन आंकड़ों के उलट राज्य के ग्रामीण विकास सचिव अरविंद कुमार चौधरी का दावा है कि राज्य के 19 जिले पहले ही खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं और बाकी 19 जिलों में भी यह काम तकरीबन पूरा होने की स्थिति में है. उनके मुताबिक, बाकी 19 जिलों के अधिकतर इलाके (89% से लेकर 99% तक) भी खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं. हालांकि, शौचालयों का निर्माण एक चीज है, जबकि उनका इस्तेमाल अलग मामला है. दरसअल, पिछले कार्यक्रम- निर्मल भारत अभियान के तहत बड़ी संख्या में शौचालयों के निर्माण के बावजूद खुले में शौच की समस्या बदस्तूर जारी है. उन्होंने कहा, 'जब तक लोग पूरी तरह से शौचालय का इस्तेमाल करना शुरू नहीं करेंगे, तब तक कुछ नहीं हो सकता. सिर्फ शौचालयों के निर्माण से कुछ नहीं होने वाला है.' केंद्रीय पेय जल और सफाई मंत्री रमेश चंदप्पा जीगीजीनागी ने बीते साल 27 दिसंबर को लोकसभा में सांसदों को बताया था कि बिहार के 33 जिलों और 21,352 गांवो को अब तक खुले में शौच की समस्या से मुक्त किया जाना बाकी है. पेय जल और सफाई मंत्रालय के सचिव परमेश्वरन अय्यर ने भी अगस्त 2018 में आयोजित एक बैठक में कहा था कि इस मिशन के मामले में बिहार और ओडिशा को लेकर सरकार को चिंता है, क्योंकि घरों में शौचालयों के मामले में इन राज्यों का आंकड़ा अब भी तकरीबन 65 फीसदी ही है, जो तय लक्ष्य से काफी दूर है. उन्होंने कहा था कि मिशन में शामिल इन राज्यों के पिछड़े जिले सामाजिक-आर्थिक मापदंडों के मामले में भी सबसे निचले स्तर पर मौजूद हैं. मिशन को सफलतापूर्वक लागू करने की चुनौतियां केंद्र सरकार के थिंक-टैंक- नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में भी कहा गया कि स्वच्छ भारत मिशन को लागू करने की एक प्रमुख चुनौती इसके सफलतापूर्वक लागू करने को लेकर है. मसलन घरों और अन्य जगहों पर शौचालय के निर्माण के लिए जगह उपलब्ध कराए जाने की दिक्कत, शौचालयों के इस्तेमाल और रख-रखाव से जुड़े मुद्दे आदि प्रमुख हैं. पानी की कमी और लोगों के रवैये में बदलाव जैसी समस्या भी इस दिशा में शत-प्रतिशत सफलता हासिल करने संबंधी प्रमुख चुनौतियां हैं. स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत यानी 2 अक्टूबर 2014 के बाद इसे लागू करने से लेकर अब तक पेय जल और स्वच्छता मंत्रालय राष्ट्रीय स्तर पर इसे लागू करने के लिए नोडल मंत्रालय है. हालांकि, राज्य सरकारों को इस बात की स्वतंत्रता मिली हुई है कि वे अपने हिसाब से उपयुक्त विभाग को ग्रामीण स्वच्छता के लिए काम करने की जिम्मेदारी सौंप सकते हैं. बिहार में ग्रामीण विकास विभाग इस पूरे अभियान की देखरेख कर रहा है. बिहार का नवडीहा गांव प्रदेश की राजधानी पटना से महज 35 किलोमीटर की दूरी पर है. नौबतपुर ब्लॉक में मौजूद इस गांव का रिकॉर्ड खुले में शौच से मुक्ति अभियान के मामले में काफी खराब है. इस गांव का खुले में शौच से मुक्ति का कवरेज महज 23.93 फीसदी है. पिछले दो साल में इस गांव में एक भी शौचालय नहीं बनाया गया है. हालांकि, इस अभियान के शुरू में इस गांव की प्रगति काफी उत्साहजनक नजर आ रही थी. नौबतपुर ब्लॉक मुख्यालय से 14 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद यह गांव (नवडीहा) के तत्कालीन सरपंच देवेंद्र चौहान की पहल के कारण यहां पर इस अभियान को शुरुआती रफ्तार मिली थी, लेकिन कुछ ही समय बाद गांव वालों की दिलचस्पी इस अभियान में सुस्त पड़ने लगी. नवडीहा के एक किसान ह्रदय प्रसाद की पत्नी बुंदा देवी (45 साल) ने बताया, 'शौचालय का निर्माण कार्य अब भी अधूरा है और दो साल के बाद भी मैं अब तक अपने घर में शौचालय का इस्तेमाल नहीं कर पाई हूं. पहले की तरह ही अब भी मुझे रात में भी शौचालय के लिए बाहर जाना पड़ता है. यह न सिर्फ मेरे लिए बल्कि मेरी दो बहुओं (जिनकी हाल में शादी हुई है) के लिए बेहद शर्मनाक स्थिति है.' बुंदा देवी अकेली नहीं हैं जो इस तरह की परेशानी का सामना कर रही हैं. उनके पड़ोसी शैलेंद्र कुमार (26 साल) के परिवार के सदस्यों को भी शौच के लिए खेतों में जाना पड़ता है. शैलेंद्र कुमार मगध विश्वविद्यालय, बोध गया से ग्रेजुएट हैं और वह इस बात को लेकर काफी शर्मिंदगी महसूस करते हैं कि महिलाओं को रात के दौरान शौच के लिए घर से बाहर जाना पड़ता है. वह कहते हैं, 'यह न सिर्फ शर्मनाक, बल्कि नुकसानदेह भी है.' शैलेंद्र का मानना है कि जागरूकता की कमी, सरकारी मदद से जुड़े भुगतान की लंबी और ढीली प्रक्रिया गांवों में शौचालय के निर्माण की सुस्त रफ्तार की प्रमुख वजहें हैं. इसके अलावा, सरकार मदद के रूप में शौचालय के निर्माण के लिए जो रकम भुगतान की जाती है, वह इस काम के लिए आवश्यक फंड से कम पड़ जाती है. नवडीहा पंचायत में कुल 9 गांव हैं- नवडीहा, रेगनियाबाग, रामचरण छतनी. पलटू छतनी, दानागंज, बिसारपुर, रामपुर, उदयपुरा और धोबिया कालापुर. सरकारी आंकड़े इस तथ्य का भी खुलासा करते हैं कि नवडीहा पंचायत में अब भी कुल 1,135 घरों में शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं है. नवडीहा की मौजूदा सरपंच आराधना देवी ने बताया कि पंचायत में अब कुल 1,492 घर हैं और उनका दावा है कि शौचालयों के निर्माण के सिलसिले में तय लक्ष्य को पूरा करने के लिए जल्द जोरशोर से काम पूरा शुरू किया जाएगा. आराधना देवी साल 2015 में इस पंचायत की सरपंच चुनी गई थीं. उनके पति और पंचायत समिति के पूर्व सदस्य अश्विनी कुमार का कहना था कि नौबतपुर ब्लॉक के प्रखंड विकास पदाधिकारी (बीडीओ) की अगुवाई में अधिकारियों की एक टीम ने इस संबंध में हो रहे निर्माण कार्यों का जायजा लेने के लिए नवडीहा पंचायत के तहत आने वाले गांवों का दौरा किया. उन्होंने बताया, 'हम उम्मीद करते हैं कि आने वाले दिनों में इससे जुड़े कार्यों में रफ्तार देखने को मिलेगी.' अव्यावहारिक तरीके से ग्रांट का भुगतान, लोगों को पर्याप्त रकम नहीं मिल पा रही पंचायत प्रमुख और उनके पति के दावों के उलट रेगनियाबाग गांव के लोगों का कहना है कि गांव में इस योजना का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है. रेगनियाबाग के एक दिहाड़ी मजदूर लाल मोहन प्रसाद (52 साल) ने बताया कि 12,000 रुपए (शौचालय निर्माण के लिए घर के मालिक को दी जाने वाली आर्थिक मदद) में शौचालय बनाना न सिर्फ मुश्किल बल्कि एक तरह से नामुमकिन जैसा है. इसी वजह से स्वच्छ अभियान से जुड़ी इस पहल में लोगों की ज्यादा दिलचस्प नहीं पैदा हो पा रही है. द रअसल, एक हजार ईंटों की लागत 7,000 से 8,000 रुपए के बीच पड़ती है. शौचालय के निर्माण के लिए कम से कम 3,000 से 3,5000 रुपए बालू का खर्च पड़ेगा. इसके अलावा, कम से कम 5 बोरी सीमेंट की जरूरत होगी, जिसकी कीमत कम से कम 2,500 रुपए बैठेगी. इसी तरह, मजदूरी पर तकरीबन 3,000 रुपए खर्च होंगे. इसके तहत कम से कम तीन दिनों तक एक राजमिस्त्री और दो मजदूर को काम करना होगा. लाल मोहन का कहना था कि साथ ही दरवाजा, प्लास्टिक पाइप और शौचालय की सीट पर भी ठीकठाक रकम खर्च करनी होगी. लिहाजा, उनके मुताबिक एक टिकाऊ शौचालय तैयार करने की लागत 20,000 से 25,000 रुपए के बीच बैठेगी. रेगनियाबाग के एक किसान हेमराज प्रसाद (40 साल) का कहना था, 'सरकार के सभी विभागों में भ्रष्टाचार चरम पर है और स्वच्छ भारत मिशन (खुले में शौच से मुक्ति) भी इसका अपवाद नहीं है. कई ऐसे लोग हैं, जिनके पास घर बनाने के लिए जमीन ही नहीं उपलब्ध है. इस तरह के भूमिहीन लोगों के लिए शौचालय के निर्माण की बात करना बेमतलब होगा.' स्थानीय लोगों का कहना है कि दिसंबर 2018 में गांव में वैसे घरों का सर्वेक्षण किया गया था जिनमें शौचालय की सुविधा नहीं थी. इन लोगों के मुताबिक, इस सर्वे के नतीजे ब्लॉक ऑफिस और जिला मुख्यालयों को भेजे गए थे. नौबतपुर के बीडीओ सुशील कुमार से जब इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने इस साल मार्च के अंत तक इस लक्ष्य को पूरी तरह से हासिल करने का वादा किया. उनका कहना था, 'स्थानीय लोगों के जनप्रतिनिधियों से कहा गया है कि वे यहां के निवासियों को इस बारे में उत्साहित और जागरूक करें और इस इलाके में स्वच्छता कार्यक्रम की सफलता सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन को सहयोग करें' इस सिलसिले में पटना के डीएम कुमार रवि से भी संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद वह प्रतिक्रिया के लिए उपलब्ध नहीं हो सके. हालांकि, ग्रामीण विकास विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि 2 अक्टूबर 2014 को इस स्कीम को शुरू किए जाने के बाद से 2014-2015 में सिर्फ 1.65 लाख शौचालयों का निर्माण हुआ. यह आंकड़ों 2015-16 में उछलकर 4.27 लाख तक पहुंच गया, जबकि 2016-17 में 8.37 लाख शौचालयों का निर्माण हुआ. 2017-18 में यह आंकड़ा और तेजी से बढ़कर 35.73 लाख तक पहुंच गया. इस अधिकारी ने नाम जाहिर नहीं किए जाने की शर्त पर बताया कि नवंबर 2018 तक बिहार में कुल 37,59,947 शौचालयों का निर्माण किया जा चुका था. राज्य में कुल 1.65 करोड़ घर हैं. बहरहाल पटना के सामाजिक कार्यकर्ता संतोष कुमार का कहना है कि जब तक सरकार गांवों में सार्वजनिक शौचालय के लिए प्रावधान नहीं करती है, तब तक स्वच्छ भारत मिशन का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा. उनका यह भी सुझाव है कि तमाम तरह के यात्रियों के लिए प्रमुख सड़कों और नेशनल हाइवे पर सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया जाना चाहिए.  संतोष के मुताबिक, पटना में भी सार्वजनिक शौचालयों की भारी कमी है, जिसे साल 2025 तक स्मार्टिसिटी बनना है. नतीजतन, यहां भी लोगों को सार्वजनिक स्थानों पर खुले में कहीं भी पेशाब करते हुए देखा जा सकता है. (अत्याशा सिंह और रमाकांत मिश्रा पटना के स्वतंत्र पत्रकार और 101Reporters.com के सदस्य हैं, जो जमीनी स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों का देशव्यापी नेटवर्क है.)

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