DEV D के 10 साल: एक फिल्म जिससे अनुराग कश्यप ने 'हिरोइन' होने के मायने बदल दिए

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देव डी को रिलीज हुए आज पूरे दस साल हो गए. 6 फरवरी 2009 को ये फिल्म रिलीज हुई थी, जिसने कई मायनों में भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में हीरो और हिरोइन के पूरे प्रेजेन्टेशन को बदल कर रख दिया था. देव डी के रीलिज होने के बाद इसी तरह की लीक से हटकर कई फिल्में और रीलिज हुईं लेकिन उन्हें वो सफलता नहीं मिली जो देव डी को मिली थी. देव डी बंगाल के प्रसिद्ध साहित्यकार शरत चंद्र बंदोपाध्याय की किताब देवदास से प्रेरित है. हालांकि शरत चंद्र की इस कहानी पर विमल रॉय और संजय लीला भंसाली ने फिल्म बनाई है. पर देव डी उनको फॉलो न करके अपनी कहानी गढ़ती है. आज के जमाने की फिल्म है. विमल रॉय की देवदास (दिलीप कुमार ने देवदास की भूमिका निभाई) हो या फिर भंसाली की देवदास (शाहरुख खान ने देवदास की भूमिका निभाई), इनका हीरो अपने प्यार को न पाकर नशे में डूब जाता है. लेकिन देव डी उल्टा है. देव डी में हीरो को प्यार नहीं होता बल्कि उसे सिर्फ शारीरिक भूख मिटानी होती है. इसी तरह देव डी ने महिलाओं की जरुरतों को भी खुलकर दिखाया गया है. पारो और चंद्रमुखी दोनों को ही अपनी अपनी सेक्सुएलिटी के हिसाब से प्रस्तुत किया गया है. विमल रॉय और संजय लीला भंसाली की पारो और चंद्रमुखी से इतर देव डी की पारो और चंद्रमुखी देव की पूजा नहीं करती. बल्कि वो देव की गलतियों पर उंगली उठाती हैं. उसे अपनी भूल सुधारने और उससे बाहर निकलने का मौका देती हैं. महिला कलाकारों को सशक्त प्रदर्शन फिल्म में पारो (माही गिल) पंजाब में देव की पड़ोसन होती है. ये पारों स्वतंत्र और सशक्त होती है. देव द्वारा अपनी नग्न फोटो मांगने पर वो दूसरे शहर जाकर उसे फोटो खिंचवाते और देव को मेल करते दिखाया गया है. यही नहीं एक सीन में पारो को साइकल पर गद्दा रखकर खेत में जाते दिखाया गया है. जहां देव उसका इंतजार कर रहा होता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि पारो की मंशा भी सिर्फ शारीरिक भूख मिटाने की थी. बल्कि देव के लिए उसके मन में प्यार था. लेकिन फिर जैसे ही उसे पता चलता है कि देव सुधर नहीं सकता वो उसे छोड़कर जाने में भी गुरेज नहीं करती. वहीं चंदा का कैरेक्टर भी दिलचस्प है. एक एमएमएस स्कैंडल में फंसने के बाद के घटनाक्रम में चंदा कोठे पर पहुंच जाती है. यहां पहुंच चंदा अपने शरीर को बेचकर पैसे कमाती है और अपनी पढ़ाई पूरी करती है. अनुराग कश्यप ने पारो और चंदा के रोल के लिए दो नए चेहरों को लिया था, जो बहुत ही सही फैसला था. माही गिल और कल्कि दोनों ने अपने रोल को बखुबी निभाया और क्योंकि दोनों ही नए कलाकार थे तो दर्शकों के दिमाग में उनकी कोई छवि नहीं थी. दशकों पुरानी रुढ़ियों को तोड़ा: 1970 के दशक की शुरुआत तक, स्क्रीन पर कामुकता को पाप की तरह दिखाया जाता था और इस तरह के रोल को अक्सर हेलेन और अरुणा ईरानी जैसी 'वैम्प्स' ही निभाती थीं. लेकिन ज़ीनत अमान और डिंपल कपाड़िया जैसी नई खेप ने इस धारणा को चुनौती दी. इन्होंने ऐसी महिला के रुप में खुद को प्रस्तुत किया जिस अपनी कामुकता को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं थी. हालांकि, राम गोपाल वर्मा की 1995 में आई फिल्म रंगीला में उर्मिला मातोंडकर ने इस तरह की भूमिका को स्थापित कर दिया और यह आदर्श बन गया. लेकिन फिर भी, देव डी के आने तक महिला कामुकता सिर्फ एक औजार ही थी. जिसे इस फिल्म ने एक विषय के रूप में खोजा. देव डी की एक और खासियत ये रही कि इस फिल्म ने अपनी नायिकाओं को सेक्शुअली लिबेरेटेड महिलाओं के रूप में चित्रित तो किया ही, पर ये पुरुष प्रधान फिल्म में ऐसा किया गया. (फर्स्टपोस्ट के लिए देवांश शर्मा के लेख से साभार)

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