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70 के दशक की बात है. शिमला में एक औसत परिवार के घर से 100 रुपए की चोरी हो गई. 100 रुपए उस परिवार के लिए अहमियत रखते थे. उस पर से भी ये चोरी मंदिर से हुई थी. लिहाजा बात चिंता की थी. छोटा सा घर था. परिवार संयुक्त था. करीब दर्जन भर लोग साथ रहते थे. ऐसे में पूजाघर में रखे 100 रुपए आखिर गए तो कहां गए? बात पुलिस तक भी पहुंच गई. घर में दो बच्चे थे, जिसमें से एक पिकनिक मनाने की बात कहकर घर से गया था. शक उसी पर था. लेकिन उस बच्चे ने चोरी से साफ इंकार कर दिया. बात थोड़ी ठंडी पड़ गई. पुलिस वापस चली गई. अभी कुछ ही दिन बीते थे कि घर में एक बार फिर पंचायत बैठी. इस बार घर के मुखिया ने अपने उसी बच्चे को बुलाया और गुस्से में कहा कि वो साफ-साफ बता दे कि उस दिन वो पिकनिक मनाने की बात कहकर कहां गया था. पिता की आंख में गुस्सा था. उस रोज उनका मिजाज बता रहा था कि आज बच्चे की जमकर पिटाई होने वाली है. पिता का गुस्सा और मां का थप्पड़ बच्चे के लिए ये इशारा काफी था कि अब सच स्वीकार करने में ही भलाई है. बच्चे ने मान लिया कि मंदिर में रखे 108 रुपए में से 100 रुपए उसी ने चुराए थे. अगला सवाल था- क्यों? जवाब मिला- एक्टिंग की पढ़ाई पढ़ने के लिए चंड़ीगढ़ इंटरव्यू देने गया था. उसके इस बात को कहने के अगले ही सेकंड गाल पर एक जोर का तमाचा लगा. राहत की बात बस इतनी थी कि ये तमाचा उसके पिता ने नहीं बल्कि मां ने लगाया था. मां की आंखों में आंसू भी थे. ये भी पढ़ें:जन्मदिन विशेष: 'देश में इंजीनियर तो एक करोड़ हो सकते हैं लेकिन शंकर महादेवन एक ही होगा' मां का गुस्सा और फूटता इससे पहले पिता ने स्थिति को संभाल लिया. पिता ने आगे बढ़कर वो चिट्ठी दिखाई जो उनके बेटे के सेलेक्शन को लेकर आई थी. उसी चिट्ठी में इस बात का जिक्र भी था कि इस पढ़ाई के दौरान हर महीने 200 रुपए का स्टाइपेंड मिलेगा. पिता ने बेटे को उठाते हुए मां से कहा कि वो परेशान ना हों उनके मंदिर से चोरी किए गए 100 रुपए उनका बेटा ही लौटाएगा. आप समझ गए होंगे कि ये कहानी अभिनेता अनुपम खेर की ‘रीयल’ लाइफ से है. इसके बाद की सारी कहानी इतिहास में दर्ज है. अनुपम खेर 1974 में चंडीगढ़ पहुंचे. एक सामान्य से परिवार और बचपन को बिताकर आए अनुपम खेर के लिए कॉलेज की लाइब्रेरी किसी खजाने की तरह थी. बचपन से कुछ ‘अलग’ करने का शौक तो था लेकिन वो ‘अलग’ क्या है ये नहीं पता था. अखबारों में अपनी राशि के बारे में पढ़ते वक्त उसी राशि की मशहूर हस्तियों के छपे हुए नाम के आगे वो अपना नाम भी जोड़ दिया करते थे. इस उम्मीद के साथ कि एक दिन ऐसा आएगा जब पूरी दुनिया उन्हें जानेगी. लिहाजा उस ‘अलग’ काम को करने की तलाश थी. जो साबित कर दे कि वो बाकियों से अलग हैं. अलग पहचान के पीछे कॉलेज में किताबों ने वही ‘अलग’ पहचानने में अनुपम खेर की मदद की. उन्होंने कई महीने उस लाइब्रेरी में अभिनय, रंगमंच और सिनेमा की किताबों में गुजार दिए. लेकिन वहां से जब अनुपम खेर निकले तो उन्हें पता चल चुका था कि आगे की मंजिल क्या है. उनकी अगली मंजिल थी दिल्ली का राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय यानी नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा. एनएसडी में वजीफा बढ़कर 300 रुपए हो गया था. अनुपम खेर ने एनएसडी से पढ़ाई करने के बाद लखनऊ में एक्टिंग पढ़ाने का काम शुरू किया. 300 की कमाई 1200 में तब्दील हो गई. लेकिन अभी वो ‘अलग’ करने की चाहत बाकी थी. उस चाहत को पूरा करने के लिए बॉम्बे जाना था और बॉम्बे में जाना और रहना इतना आसान नहीं था. बावजूद इसके एक संयोग ऐसा बना कि 80 के दशक के शुरुआती सालों में अनुपम खेर बॉम्बे पहुंच गए. ये भी पढ़ें: जन्मदिन विशेष: क्यों अपने नाम के साथ संजय भंसाली ने जोड़ा मां का नाम? बॉम्बे में तमाम अभिनेताओं की तरह शुरुआती दिन बहुत चुनौतियों भरे थे. समस्या एक नहीं थी. रहना समस्या थी. खाना समस्या थी. कोई वक्त नहीं देता था. जो वक्त देता था तो ‘राइटर’ बनने की सलाह देता था. कई ऐसी बिन मांगी सलाहें अनुपम खेर को सिर्फ इसलिए भी मिलीं क्योंकि उनके सिर पर बाल नहीं थे. ये एक तरह का अलग चैलेंज था जो संघर्ष करने वाले हर अभिनेता को नहीं उठाना पड़ता. खैर, किसी तरह भागते दौड़ते पहली फिल्म मिली-आगमन. छोटा सा रोल था. हर दिन के कुछ चार-पांच सौ रुपए मिलते थे. लेकिन इस फिल्म के जरिए कम से कम रास्ता तो मिल ही गया था. सारांश से मिली अलग पहचान इस रास्ते की चमक दो-तीन साल बाद ही अनमोल हो गई जब अनुपम खेर ने महेश भट्ट की फिल्म सारांश में काम किया. 28 साल की उम्र में 60 साल के एक बुजुर्ग का वो दमदार रोल आज भी अनुपम खेर की सबसे बड़ी पूंजी है. फिल्म देखने के बाद जब लोगों को पता चला कि उस बुजुर्ग का रोल एक 28-29 साल के लड़के ने निभाया है तो वो हतप्रभ थे. उस एक रोल ने अनुपम खेर को वो सबकुछ दे दिया जिसका सपना वो बचपन से देखते आ रहे थे. सारांश के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला. सारांश के बाद 80 के दशक में ही कर्मा, राम लखन और फिर डैडी में उनका रोल जबरदस्त रहा. 90 के दशक में वो डर, दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे, कुछ कुछ होता है जैसी सुपरहिट फिल्मों में आए. फिल्मफेयर अवॉर्ड के साथ साथ अब तक राष्ट्रीय पुरस्कार भी उनकी झोली में आ चुका था. फिल्म इंडस्ट्री उनके अभिनय की गहराई को समझ चुकी थी. वो अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों में भी अच्छे किरदारों में नजर आए. साथ ही साथ कई लोकप्रिय टीवी शोज में उन्होंने अलग अलग भूमिका निभाई. ये भी पढ़ें: जब मोजड़ी उठाने में देर करने पर साबिर खान पर भड़क गए थे उस्ताद सुल्तान खान पिछले करीब एक दशक में अनुपम खेर के रोल में एक अलग ही विविधता नजर आई है. जो उनके 500 से ज्यादा फिल्मों के तजुर्बे से निकली है. वो ‘खोसला का घोसला’ करते हैं, वो ‘ए वेडनसडे’ करते हैं, वो ‘स्पेशल 26’ करते हैं और वो ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ भी करते हैं. वो मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों के हिमायती भी हैं इसलिए सोशल मीडिया में कई बार आलोचना का शिकार भी बनते हैं. बावजूद इसके उनके अभिनय की जड़ें और गहरी होती जा रही हैं.
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