बिना बदलाव के मादक बसंत से अचानक ग्रीष्म की प्रचंडता का बोध कैसे होता?

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ग्रीष्म हमें मांजती है. ताप से झुलसाने के बाद शीतल फुहार की चाहत बढ़ाती है. गुलमोहर और अमलतास इसके ताप से निखरने के प्रतीक हैं. यानी ग्रीष्म संघर्ष और जिजीविषा की मिसाल है. बदलाव प्रकृति का स्वभाव है. अगर यह न हो तो हमें मादक बसंत से अचानक ग्रीष्म की प्रचंडता का बोध कैसे होता? बसंत में मगन मन ग्रीष्म की तपन से सिहरता है. दिन तमतमाते हैं और रातें बेचैन हो जाती हैं. जब सूरज भूमध्य रेखा से कर्क रेखा की ओर बढ़ता है तब ग्रीष्म का आगमन होता है. तापमान चढ़ता है. पारा टूटता है. जगत आवां बनता है. दिन बड़े होते हैं, रातें छोटी. धरती जलती है. नदी, ताल और तालाब सूखते हैं. छाया भी अपनी छाया ढूंढती है. कंठ सूखते हैं. शरीर में स्फूर्ति की जगह आलस्य आता है. ग्रीष्म प्रकृति का उग्र रूप है, पर यह उग्रता कोई आफत नहीं है, हमें साधने का उपाय है. ग्रीष्म हमें तपाती है, शरीर को खरा बनाती है, जीवन जीना सिखाती है. पेड़ों से हमारी नजदीकी बढ़ती है. पेड़ हमें जीवनदाता लगते हैं. जंगल और हवा पाटल की सुगंध से भर जाते हैं. पेड़ की छाया में लेटते ही नींद आती है. वह और वक्त था, जब आम की अमराई में सोने से पांच सितारा सुख मिलता था. सत्तू की ठंडक आइसक्रीम का कान काटती थी. घिसे बर्फ की चुस्की स्कूल में हमारी रईसी का प्रमाण होती थी. हम ग्रीष्म में शरीर को अपने खान-पान से सींचते थे, ताकि गैर-जरूरी गर्मी न पैदा हो और शरीर में बाहर की गर्मी से लड़ने का सामर्थ्य आए. इस मौसम में क्या मसाले खाए जाएं? किस फल से गर्मी कटेगी? इसकी जानकारी पूरे विधि-विधान के साथ हमारी रसोई में थी. आम का पना, बेल का शरबत, फालसे का रस, कसेरू की ठंडई से हम शरीर सींचते थे. गर्मी से लड़ने के लिए खाने-पीने का ऐसा विज्ञान हमारे यहां परंपरा से ही है. कैसे बिठाएं मेल? ऋतुओं से मेल बिठाने का यह अपना देसी तरीका था. इसीलिए हमें कोई ऋतु कष्टकर नहीं लगती थी. अगर लग रही है तो शायद हम ठीक से उससे मेल नहीं बिठा पा रहे हैं. ग्रीष्म से मुकाबला करने वाले हमारे शीतल पेय का मुकाबला अब डिब्बाबंद विदेशी ड्रिंक्स कैसे कर पाएंगे? हालांकि गर्मी बचने के लिए नहीं, आनंद के लिए होती है. गर्मी से बचने के सारे इंतजाम हमारे पुरखों ने किए थे. हमने तो खुद की सहूलियत के लिए महज यंत्र बनाए, जिनसे आबोहवा और बिगड़ रही है. बढ़ता वातानुकूलन शरीर पर बुरा असर डाल रहा है. इससे उत्सर्जित कार्बन से गर्मी और खतरनाक हो रही है. ओजोन परत के टूटने का खतरा बढ़ गया है. शीतलता की तमाम भौतिक चीजों के बाद भी अब वो मजा नहीं रहा जेठ की दुपहरी में, जब हम दरवाजे पर खस की टाट लगाकर उस पर पानी छिड़कते थे. सारी दुपहरी पानी छिड़क उसका आनंद लेने में बीतती. खस घास की वो सोंधी खुशबू अब कहां! मटके की जगह फ्रिज में रखी प्लास्टिक की बोतलों ने ले ली है. स्कूल छूटने के इतने साल बाद भी मौसम की अनुभूति नहीं बदली है. गर्मी की छुट्टियां होते ही गांव जाने का जो उल्लास होता था, वह अब यूरोप में छुट्टियां मनाने में भी नहीं आता. दरअसल, ऋतुओं से अपना सामाजिक संबंध टूट रहा है. हमने उससे निपटने के इतने बनावटी उपकरण बना लिए हैं कि अब ऋतुओं के आने-जाने का कोई मतलब नहीं रह गया है. सब दिन एक से होते जा रहे हैं. इस धरा पर गए दस साल में गर्मी 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ गई है. बढ़ती ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ से धरती का औसत तापमान चढ़ा है. बढ़ते तापमान से भरी दोपहरी में लोग शरद को याद करते हैं. शायर कहता है, ‘मई और जून की गर्मी, बदन से जब टपकती है. नवंबर याद आता है, दिसंबर याद आता है.’ इसका असर पशु-पक्षी और वनस्पतियों पर भी है. जिस अंदाज में गर्मी बढ़ रही है, वैज्ञानिक सदी के अंत तक प्रलय की संभावना मानते हैं. इससे समुद्र का जलस्तर एक मीटर तक बढ़ सकता है. जिससे कई देश और तटीय नगर डूबेंगे. उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ की चादर पिघल रही है. आर्कटिक में जमी बर्फ पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ ही रहा है. ब्राह्मण ग्रंथों में अग्नि को ग्रीष्म ग्रीष्म में ही कृष्ण ने कालिया नाग का दमन किया था. ब्राह्मण ग्रंथों में अग्नि को ग्रीष्म कहा गया है. इस मौसम में ऐसा लगता है मानो सूरज गुस्से में तपाता हो. उसकी ईर्ष्या चांद से है. चांद उधार की खाता है. सूरज की चमक से चमकता है. लोग फिर भी उसकी तारीफ करते हैं, शायद इसी बात से भन्नाकर सूरज लोगों को तपाता है. ग्रीष्म का ताप समाजवाद लाता है. विपरीत प्रकृति के और शत्रु भाव रखने वाले भी साथ-साथ हो लेते हैं. कवि बिहारी कहते हैं, ‘कहलाने एकत बसत, अहि, मयूर, मृग, बाघ. जगत् तपोवन सो कियो, दीरघ दाघ, निदाघ.’ ग्रीष्म का दीर्घ ताप सांप, मोर, हिरण और बाघ को एक ही छाया में इकट्ठा रहने को मजबूर कर देता है. उनकी आकुलता उन्हें एक पेड़ के नीचे लाती है. अब न बाग हैं, न वृक्ष. गांव शहरा रहे हैं. शहर और गांव का फर्क खत्म होता जा रहा है. बेरहम मौसम का सामना कैसे करें. ‘सब जग जलता देखिया अपनी-अपनी आग’. इस आग को बुझाने के लिए हमने जल के महत्त्व को पहचाना. जल जीवन है. ग्रीष्म में जल का बड़ा महत्व है. शायद इसीलिए पुरखों ने पानी से जुड़े दो त्योहारों—गंगा दशहरा और निर्जला एकादशी—का विधान इसी ऋतु में किया है, जब जल की पूजा होती है. प्रकृति की उग्रता की मिसाल ग्रीष्म का एक मनमोहक रूप संगीत में भी है. जब अकबर को तानसेन ने ‘राग दीपक’ सुनाया था. तानसेन के स्वरों के साथ वातावरण में उष्णता भरती गई. अकबर चमत्कृत थे, पर इससे होने वाली गर्मी से वे व्याकुल हो उठे. तभी तानसेन ने मेघ मल्हार गाकर मेघों को आमंत्रित किया. बादशाह ने गायन से मौसम का आनंद लिया. संस्कृत, अपभ्रंश, पाली, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं के सभी ग्रंथों में ग्रीष्म से निपटने के लिए जल-क्रीड़ा का वर्णन है. उस वक्त इस ऋतु में वन-विहार की आकर्षक परंपरा थी. पुष्प भंजिका, ताल भंजिका, शाल भंजिका जैसे खेलों का मजा इसी मौसम में आता था. गर्मी हमें डराती तो है. सूरज के साथ आग उगलती है, पर उससे लड़ने का हौसला भी देती है. अमलतास, पलाश और गुलमोहर उस संघर्ष के प्रतीक हैं, जो सूर्य की प्रचंडता में झुलसते नहीं बल्कि और ज्यादा खिल जाते हैं. ग्रीष्म हमें यही ताकत देता है. (यह लेख हेमंत शर्मा की पुस्तक 'तमाशा मेरे आगे' से लिया गया है. पुस्तक प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है. ये लेख पूर्व में भी प्रकाशित हो चुका है)

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