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अख्तरी सोज और साज का अफसाना, ये राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित लेखक यतींद्र मिश्र की नई किताब है. वाणी प्रकाशन से आई इस किताब को यतींद्र मिश्र ने संपादित किया है. यतींद्र मिश्र को उनकी पिछली किताब लता सुर-गाथा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. अख्तरी- सोज और साज, हरदिल अजीज गायिका बेगम अख्तर की जिंदगी और संगीत के तमाम पहलुओं को खुद में समेटे हुए है. यतींद्र मिश्र ने इस किताब में बेगम अख्तर से जुड़े कई प्रसंगों को समेटा है. इसके बाद किताब में बेगम अख्तर की दो सबसे करीबी शिष्या शांति हीरानंद और रीता गांगुली से उनकी बातचीत है, जो बेगम अख्तर की शख्सियत को और करीब से समझने का मौका देती है. इसके अलावा, अलग-अलग क्षेत्र के लोगों की बेगम अख्तर के संगीत के बारे में टिप्पणियां भी किताब का हिस्सा हैं. हम अपने पाठकों के लिए इस किताब का एक अंश प्रकाशित कर रहे हैं. कोरिएन्थन थियेटर और ‘राग-रानी अख़्तरी फ़ैज़ाबादी’ बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में पारसी रंगमंच अपने बेहतरीन दौर से गुजर रहा था. तब की नामचीन गायिकाओं को इन नाटकों में अपनी गायकी और अदाकारी दिखाने का भरपूर न्यौता मिलता रहता था. इन नाटक कंपनियों में काम करने वाली अभिनेत्रियां अकसर वे कलाकार होती थीं, जिन्हें गायकी की तमीज़ हो, गला अच्छा हो और थोड़ा बहुत संगीत की तालीम पाई हों. भारतीय थियेटर के पुरोधा जमशेद जी फाम जी मदान जैसे दिग्गज लोग भी एल्फ्रिंन्स्टोन नाटक कम्पनी में ग्यारह साल की ही उम्र से कार्यरत थे और चार रुपये महीने तनख़्वाह पर बतौर सहायक काम करते थे. बहुत बाद में जाकर जमशेद जी ने अपनी प्रतिभा और रंगमंच के गहरे लगाव के चलते नारायण प्रसाद बेताब के अत्यंत प्रसिद्ध नाटकों ‘राजा हरिश्चन्द्र’ और ‘बिल्व-मंगल’ का प्रदर्शन शुरू करवाया. इन नाटकों की आशातीत सफलता के बाद, उन्होंने कोरिएन्थन हाल ही खरीद लिया, जहां पारसी तरीके से नाटक होने की लंबी परंपरा कायम थी. उस समय की मशहूर ढेरों ग्रामोफोन कम्पनियों से जारी किए जाने वाले गानों की डिस्क उन कलाकारों की भी नुमाइन्दगी करती थी, जो कोरिएन्थन थियेटर के कलाकार के रूप में शामिल थे. उस दौर के पहले-पहल रिकॉर्ड हुए कलाकारों में इस कम्पनी के भी कई कलाकार मौजूद थे. सन् 1937 में नारायण प्रसाद ‘बेताब’ के लिखे गए नाटक ‘हमारी भूल’ में बेगम अख़्तर ने भी काम किया था. यह देखना दिलचस्प है कि नाटक के इश्तिहार में बेगम का परिचय ‘राग-रानी अख़्तरी फ़ैज़ाबादी’ के रूप में दिया गया था. उनके साथ उनके तमाम सह-कलाकारों के नाम भी इश्तिहार में मौजूद थे, जिन्होंने इस नाटक में अभिनय किया था. इनमें अख़्तरी फ़ैज़ाबादी के अलावा मुख़्तार बेगम, मिस आशा, मिस फूलकुमारी, मिस रामदुलारी, मिस तारा और मिस ज़ोहरा के नाम प्रमुख हैं. उस दौर में बेगम अख़्तर, जो अख़्तरी फ़ैज़ाबादी के नाम से ही जानी जाती थीं, स्टेज और स्टेज के बाहर बेइंतहा मशहूर थीं. उनकी प्रसिद्धि के साथ वो ज़माना जहांआरा कज्जन, मास्टर निसार, मेहज़बीं, शरीफा बाई और जद्दनबाई की कामयाबियों का भी सुनहरा दौर था। आदमक़द आईने की कहानी उत्तर प्रदेश की बौड़ी रियासत के राजा राजेन्द्र बख्श सिंह संगीत के बड़े कद्रदान थे और बेगम अख़्तर की गायकी के मुरीद थे. ये वो दौर था, जब बेगम अख़्तर अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी के नाम से विख्यात थीं और विभिन्न रियासतों व बड़े शहरों के रईसों के यहां महफिल करने जाती थीं. तत्कालीन बौड़ी नरेश के दामाद राजा रघुनाथ सिंह, जो परसपुर रियासत के भूतपूर्व राजा थे, ने मुझे बताया था कि एक दिन राजा राजेन्द्र बख्श सिंह अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी के लखनऊ स्थित कोठे पर पहुंच गए और उनसे कोई ठुमरी सुनाने की पेशकश की. अख़्तरी बाई भी उनका बहुत सम्मान करती थीं, तो उन्होंने राजा साहब के लिए पूरे मन से गाकर उनकी फरमाइश पूरी की. राजा साहब जब जाने लगे, तो अख़्तरी बाई के सजे-धजे उस हॉल में जहां वे महफिलें सजाती थीं, एक आदमकद आईने पर निगाह पड़ी. विक्टोरियन फर्नीचर का नायाब उदाहरण वो आईना उन्हें भा गया और उन्होंने अख़्तरी बाई से उसकी भरपूर तारीफ की कि उनका शौक कितना आला है, जो घर को सजाने के लिए भी इतनी खूबसूरत चीज़ें उन्होंने संजोई हुई हैं. इस पर अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी ने बड़े मनुहार से बौड़ी रियासत के राजा साहब से यह गुजारिश की कि ‘हुजूर एक दादरा सुनाने का मन हो गया है, आइए बगल के कमरे में बैठकर इत्मीनान से एक दादरा सुन लीजिए.’ इतना कहकर वे अपने खानसामे को ज़रूरी निर्देश देने चली गईं कि राजा साहब के स्वागत में क्या नाश्ता परोसा जाना है. इसके बाद उन्होंने बड़े सुंदर ढंग से उन्हें एक दादरा सुनाया और उनकी खातिर करके उन्हें नीचे गाड़ी तक छोड़ने आईं. राजा रघुनाथ सिंह बताते हैं कि जब राजा राजेंद्र बख्श सिंह रुख्सती के बाद अपनी गाड़ी की तरफ बढ़े, तो देखकर चौंक गए कि अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी के उस कमरे में सजा हुआ आदमकद आईना, राजा साहब की गाड़ी पर लदा हुआ था. उन्होंने सौगात के रूप में उसे तत्कालीन बौड़ी राजा को भेंट कर दिया, जिसकी आधे घंटे पहले वे तारीफ़ कर रहे थे. इम्तियाज़ कुरैशी का दस्तरख़ान यह प्रसंग बेगम अख़्तर के सन्दर्भ में यह जानने की कोशिश भर है कि किस तरह उनका सुरीलापन जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों में भी घुला हुआ था. उनके किरदार का बड़प्पन और संगीत के प्रति सुरीलेपन का मामला केवल उनकी संगीत प्रस्तुतियों भर तक सीमित नहीं था, बल्कि उन सूक्ष्म ब्यौरों, छोटी-छोटी कोशिशों और मेज़बानी में भी झलकता था, जिसे बड़े अनूठे ढंग से बेगम अख़्तर ने साधा हुआ था. जिस वाकये का ज़िक्र मैं यहां करने जा रहा हूं, वह उनकी एक दावत के सन्दर्भ से जुड़ा हुआ है, जिसे इम्तियाज़ कुरैशी जैसे देश के प्रतिष्ठित शेफ ने अभी कुछ दिनों पहले ‘द हिन्दू’ के अपने साक्षात्कार में साझा किया है. बात उस ज़माने की है, जब बेगम अख़्तर लखनऊ की एक बड़ी पुरोधा कलाकार के रूप में सम्मानित थीं और उनके यहां मेहमानों का आना-जाना बड़ी शाइस्तगी से होता रहता था. ऐसे में एक बार मुहर्रम के दिनों में हैरान-परेशान बेगम अख़्तर लखनऊ के कृष्णा होटल में अचानक पहुंचीं, जहां के एक प्रमुख ख़ानसामा उनकी महफिलों और मजलिसों के लिए होने वाली दावतों का खाना बनाने विशेष तौर पर उनके घर आते रहते थे. जिस दिन वे परेशानी में भरकर होटल पहुंची थीं, उस दिन एक मजलिस का आयोजन उनके घर पर था. मुसीबत यह थी कि उनके यहां हर बार दावत परोसने वाले बुजुर्ग ख़ानसामा उस दिन किन्हीं वजहों से पहुंच नहीं पाए थे. यह बात बेगम अख़्तर को परेशान करने के लिए काफ़ी थी, क्योंकि वे अपने यहां होने वाली दावतों में छोटी से छोटी चीज़ का ख़ुद खयाल रखती थीं. उनका मानना था कि घर पर आने वाले मेहमानों की मेज़बानी बेहद दुरुस्त ढंग से करनी चाहिए. उनके अचानक होटल पहुंच जाने और उनके चहेते ख़ानसामे के उनके यहां न पहुंच पाने के फेर में होटल के मैनेजर से लेकर रसोई का एक-एक आदमी परेशान था. बेगम अख़्तर के आगे-पीछे हर कोई लगा हुआ था कि किस तरह उनकी समस्या को दूर किया जाए. वे उस जवान रसोइए की तलाश में भी यहां पहुंची थीं, जो उन प्रमुख ख़ानसामे का सबसे उम्दा शिष्य था. बेगम अख़्तर ख़ुद अपनी आंखों से देखकर यह पक्का कर लेना चाहती थीं कि उनके उस्ताद ने क्या उन्हें बहुत शानदार तरीके से पाक-कला में विकसित किया है. वह उन नए ख़ानसामे से प्रभावित हुईं, जिनका नाम इम्तियाज़ क़ुरैशी था. युवा इम्तियाज़ ने उन्हें तसल्ली दी कि वो अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे कि शाम को होने वाली उनकी दावत में कोई कसर न बाक़ी रहे. इस तरह इम्तियाज़ क़ुरैशी ने रात की दावत के लिए कुछ लज़ीज व्यंजन परोसे, जिन्हें देखकर आख़िरकार बेगम अख़्तर के कलेजे को ठंडक पहुंची. उन्होंने युवा रसोइए को ढेरों दुआएं दीं कि आगे चलकर वो अपने क्षेत्र में बुलंदियों को छुएं. बाद में उन्हीं इम्तियाज़ क़ुरैशी ने बेगम अख़्तर की महफिलों के लिए कई दफा लज़ीज पकवान बनाए और उनकी पसन्द के लोगों में शुमार रहे. बेगम अख़्तर की दुआओं का असर यहां तक पहुंचा कि उन्हें पाक-कला में दक्षता के लिए भारत सरकार द्वारा बाद में पद्मश्री प्रदान की गई. पद्मश्री पाने वाले वे भारत के पहले ख़ानसामा भी हुए. हिन्दू अख़बार को इंटरव्यू देते हुए इम्तियाज़ कुरैशी आज भी लगभग आधी सदी पुराने इस वाकये को याद करते हुए उल्लास और रोमांच से भर उठते हैं, जब उन्हें बेगम अख़्तर का वो हैरान-परेशान चेहरा याद आता है. वे बड़े गर्वीले भाव से मुस्कुराते हैं, जैसे वे उस दौर में अपने हाथ से बनाए हुए उन पकवानों को याद कर रहे हों, जिनसे आज भी वैसी ही खुशबू आती है. उनके हाथों से उन महफिलों में सबसे अधिक बनने वाली चीज़ों में काकोरी कबाब और दमपुख़्त तरीके से बनाए गए व्यंजन शामिल थे. इस छोटे से प्रसंग में यह देखने भर का जतन किया गया है कि बेगम अख़्तर का एक यह भी स्वभाव रहा कि उन्होंने अपनी साधारण सी मजलिस के लिए भी सबसे बेहतरीन ख़ानसामा का चुनाव करने की ज़द्दोज़हद की. जैसे वो चाहती रही हों कि उनके घर आने वाले साधारण से साधारण मेहमान का भी स्वागत बड़े शाही अंदाज़ में किया जाए. यह अपने आप में कितना दिलचस्प है कि बेगम अख़्तर का दस्तरख़ान सिर्फ़ रामपुर के नवाब रज़ा अली ख़ां के लिए ही नहीं सजता था, बल्कि वह उनके सामान्य अतिथियों के लिए भी छोटी-छोटी बातों को बड़ी तसल्ली और करीने से संजोने का हिमायती था.
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