आज खेमचंद प्रकाश की बरसी पर विशेष, दीया जलाओ जगमग-जगमग

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-दिनेश ठाकुर
राजस्थान में चूरू जिले का सुजानगढ़ शहर तिरुपति बालाजी वेंक्टेश्वर मंदिर के लिए मशहूर है। इसे राजस्थान में दक्षिण भारतीय शैली का पहला मंदिर बताया जाता है। सुजानगढ़ में कई और प्राचीन मंदिर हैं। यह शहर संगीत प्रेमियों के लिए भी तीर्थ से कम नहीं है। संगीतकार खेमचंद प्रकाश ( Khemchand Prakash ) इसी शहर की मिट्टी से उभरे और अपनी मोहक धुनों से दुनिया का सुरीलापन बढ़ा गए। नई पीढ़ी शायद उनके नाम से अनजान हो, लेकिन जो भारतीय फिल्म संगीत की विकास यात्रा से जुड़े रहे हैं, बखूबी जानते हैं कि खेमचंद प्रकाश का फिल्मों को क्या विशिष्ट योगदान है।

सबसे बड़ा योगदान तो यही है कि उन्होंने लता मंगेशकर ( Lata Mangeshkar ) को नूरजहां के आभा मंडल से निकाल कर लता मंगेशकर बनाया। लता जी अपने शुरुआती दौर में नूरजहां की तरह अनुनासिक स्वर में गाया करती थीं। खेमचंद प्रकाश ने उनसे खूब रियाज करवाने के बाद 'जिद्दी' (1948) का 'चंदा रे जा रे जा' गवाया। यह पहला गाना था, जिसने लता मंगेशकर की आवाज को अलग पहचान दी। इसके बाद कमाल अमरोही की 'महल' (1949) में खेमचंद प्रकाश के संगीत ने लता जी की आवाज के लिए संभावनाओं का अनंत आसमान खोल दिया। इसके 'आएगा आनेवाला', 'मुश्किल है बहुत मुश्किल' और 'दिल ने फिर याद किया' ने लता मंगेशकर की आवाज को जादू का पर्याय बना दिया।

खेमचंद प्रकाश ने किशोर कुमार से उनके कॅरियर का पहला गाना (मरने की दुआएं क्यों मांगूं/ जिद्दी/ 1948) गवाया। संगीतकार नौशाद कभी खेमचंद प्रकाश के सहायक थे। तीस के दशक में वाया कोलकाता मुम्बई पहुंचने से पहले खेमचंद प्रकाश बीकानेर के तत्कालीन राजघराने के गायक हुआ करते थे। संगीत की तालीम उन्होंने अपने पिता गोवर्धन दास से हासिल की, जो ध्रुपद गायकी के साथ कथक के भी उस्ताद थे। खेमचंद प्रकाश के फिल्म संगीत में ध्रुपद शैली नए-नए रूपों में सामने आई। स्वर और वाद्यों के संतुलित तालमेल से उन्होंने कई भावनात्मक धुनें रचीं। ऐसी धुनें, जिनमें स्वरों की कड़ी कभी फिसलती है, कभी कंपित होती है तो कभी झरने की तरह बहती है। मसलन के.एल. सहगल का गाया 'दीया जलाओ जगमग-जगमग' (तानसेन) या खुर्शीद की आवाज में 'बरसो रे कारे बदरवा' या फिर अमीरबाई कर्नाटकी का गाया 'चंदा देस पिया के जा।'

'महल' का संगीत खेमचंद प्रकाश के कॅरियर का सबसे बड़ा धमाका साबित हुआ, लेकिन वे अपनी यह धमाकेदार कामयाबी नहीं देख पाए। 'महल' सिनेमाघरों में पहुंचने से दो महीने पहले 10 अगस्त, 1949 को उनका देहांत हो गया। तब वे सिर्फ 41 साल के थे। विधि के इस विधान पर मजरूह का शेर याद आता है- 'हमारे बाद अब महफिल में अफसाने बयां होंगे/ बहारें हमको ढूंढेंगी, न जाने हम कहां होंगे।'



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