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-दिनेश ठाकुर
बुद्धदेव दास गुप्ता ( Buddhadev Dasgupta ) की 'अनवर का अजब किस्सा' ( Anwar Ka Ajab Kissa Review ) देखते हुए गालिब रह-रहकर याद आ रहे थे- 'हम हैं मुश्ताक (आतुर) और वो बेजार (विमुख)/ या इलाही ये माजरा क्या है।' यह तो पता था कि फिल्म 'अंधी गली', 'बाघ बहादुर', 'तहादेर कथा' और 'कालपुरुष' बनाने वाले प्रबुद्ध फिल्मकार बुद्धदेव दास गुप्ता की है, तो यह लीक से हटकर होगी, इसमें बार-बार आजमाए जाने वाले फार्मूले नहीं होंगे। लेकिन यह नहीं सोचा था कि फिल्म में कहानी ही नहीं होगी। फिल्म के नाम में जो 'अजब किस्सा' है, वह क्या है, फिल्म पूरी हो जाने के बाद भी साफ नहीं हुआ। यह जरूर साफ हो गया कि 2013 में बन चुकी इस फिल्म को सिनेमाघर क्यों नसीब नहीं हुए और अब क्यों इसे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर उतारना पड़ा।
फर्क है फिल्म और पेंटिंग में
माना कि बुद्धदेव दास गुप्ता का जोर माहौल रचने और किरदारों की मनोदशा उभारने पर ज्यादा रहता है। माना कि सिनेमा की तकनीक पर उनकी गहरी पकड़ है। यह भी माना कि वह कलाकारों को ओवर नहीं होने देते। लेकिन यह कैसे माना जाए कि सिर्फ अच्छी फोटोग्राफी वाले ऐसे दृश्यों को, जिनका आपस में कोई तालमेल नहीं हो, फिल्म कहा जाता है। फिल्म और पेंटिंग में काफी फर्क होता है। पेंटिंग में जिस तरह रंग और रेखाओं से कल्पनाएं विस्तार पाती हैं, उसी तरह कहानी किसी फिल्म की रूह हुआ करती है। 'अनवर का अजब किस्सा' में और भले कुछ भी हो, रूह गायब है।
थका-हारा जासूस
फिल्म की शुरुआत में कैमरे ने बड़े सलीके से कोलकाता की गलियों में घुमाया। एक गली में अनवर (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) ( Nawazuddin Siddiqui ) एक युवती का पीछा कर रहे हैं। वे एक डिटेक्टिव एजेंसी के लिए जासूसी का काम करते हैं, जिसके मालिक का कहना है कि यह एजेंसी उसके अब्बा ने शुरू की थी, जिन्हें किसी जमाने में कोलकाता के लोग शरलॉक होम्स कहा करते थे। जासूसी के एक-दो सीन दिखाने के बाद कैमरा या तो अनवर के अकेलेपन पर टिका रहता है या पुरानी इमारतों, सीढिय़ों, दीवारों, खुले मैदान और पेड़ों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। हर बार लगता है कि अगले सीन में कुछ होगा, लेकिन कुछ नहीं होता। बस, कैमरा कभी यहां, कभी वहां टिक जाता है। क्लाइमैक्स से पहले एक पगडंडी पर यह काफी देर टिका रहा, तो लगा कि कहीं कैमरामैन को नींद तो नहीं आ गई। अनवर की पूर्व प्रेमिका (निहारिका सिंह) ( Niharika Singh ) , जो अब किसी और की पत्नी है, का पर्दे पर आना न आना बराबर है। चार-पांच मिनट के लिए पंकज त्रिपाठी भी नजर आए। इनके साथ भी 'ये क्या आने में आना है' वाला मामला है।
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बेहद धीमी रफ्तार
पूरी फिल्म में कैमरा ज्यादातर समय नवाजुद्दीन सिद्दीकी पर टिका रहा है। वे मंजे हुए अभिनेता हैं। गुजरे दिनों की यादों और मौजूदा हालात के बीच उलझे अनवर के जटिल किरदार को उन्होंने शिद्दत से अदा किया है। लेकिन फिल्म का हुलिया उनकी मेहनत पर पानी फेर देता है। बुद्धदेव दास गुप्ता जाने कौन-सा फलसफा पेश करना चाहते थे कि फिल्म की रफ्तार भी बेहद धीमी रखी। पहाड़ी इलाकों की मिनी ट्रेन की तरह इस फिल्म को भी कहीं से भी छोड़ा या पकड़ा जा सकता है। दो घंटे से लम्बी फिल्म देखने वाले खुद से पूछ सकते हैं- 'इसमें अजब किस्सा क्या था? इतनी देर से हम क्या देख रहे थे?' (गलती हो गई, अब नहीं देखेंगे)।
० फिल्म : अनवर का अजब किस्सा
० अवधि : 2.17 घंटे
० रेटिंग : 1/5
० लेखन, निर्देशन : बुद्धदेव दास गुप्ता
० संगीत : अलोकनंदा दास गुप्ता
० फोटोग्राफी : डियागो रोमेरो
० कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, निहारिका सिंह, अनन्या चटर्जी, पंकज त्रिपाठी, मसूद अख्तर, फारुक जाफर, अमृता चटर्जी, सोहिनी पॉल आदि।
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