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-दिनेश ठाकुर
हफीज जालंधरी ने फरमाया है- 'आने वाले जाने वाले हर जमाने के लिए/ आदमी मजदूर है, राहें बनाने के लिए।' वक्त के साथ बनती नई-नई राहों से दुनिया कहां से कहां पहुंच जाती है, इन राहों को बनाने वाला मजदूर कहीं नहीं पहुंच पाता। बरसों पहले वह जिस सीमित दायरे में था, आज भी उसकी गुजर-बसर कमोबेश उसी छोटे-से दायरे में हो रही है। इटली के फिल्मकार वित्तोरियो डी सीका की क्लासिक 'बाइसिकल थीव्स' (साइकिल चोर) में इस दायरे के दुख-दर्द, टीस और छटपटाहट को शिद्दत से पर्दे पर उतारा गया था। Bicycle Thieves फिल्म में रोम के मजदूर रिकी को एक अदद साइकिल के लिए क्या-क्या नहीं झेलना पड़ता। बड़ी मुश्किल से वह अपनी गिरवी रखी साइकिल छुड़ा पाता है। कुछ दिन बाद चोर उसकी साइकिल उड़ा ले जाते हैं। काफी भटकने के बाद भी साइकिल का अता-पता नहीं मिलता, तो हताशा में वह सुनसान सड़क पर खड़ी किसी की साइकिल चुराने की कोशिश करता है, लेकिन पकड़ा जाता है और अपने दस साल के बेटे के सामने भीड़ के हाथों बुरी तरह पिटता है।
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प्रदर्शन की तैयारी
'बाइसिकल थीव्स' के 70 साल बाद अब भारत में एक फिल्म 'मट्टो की साइकिल' ( Matto ki Saikil Movie ) बनाई गई है। यह मथुरा (उत्तर प्रदेश) के एक मजदूर और उसकी साइकिल के जरिए उस आबादी के विषम हालात का जायजा लेती है, जिसके लिए आज भी बगैर मोटर वाले दो पहिए जिंदगी को चलाने के लिए जरूरी हैं और जो तरक्की के फरिश्तों की मेहरबानी से महरूम है। निर्देशक एम. गनी ( M. Gani ) की 'मट्टो की साइकिल' की उड़ान का आलम यह है कि भारत में प्रदर्शन से पहले ही यह बुसान (दक्षिण कोरिया) के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह ( Busan International Film Festival ) के चक्कर काट आई है। हाल ही सम्पन्न हुए इस समारोह में फिल्म को मिली वाहवाही से उत्साहित एम. गनी इसे भारतीय दर्शकों तक पहुंचाने की तैयारियों में जुटे हैं।

दो पहियों से प्रेम
फिल्म में मजदूर मट्टो (प्रकाश झा) को जितना प्रेम बेटी से है, उतना ही अपनी साइकिल से है, जो उसे रोज उसके काम के ठिकाने तक पहुंचाती है। आए दिन साइकिल में कोई न कोई खराबी काम पर देर से पहुंचने का सबब बनती है और उसे ठेकेदार के 'भजन' सुनने पड़ते हैं। फिल्म मामूली साधनों पर मजदूरों की निर्भरता को रेखांकित करते हुए इस सामाजिक विडम्बना पर भी प्रहार करती है कि तिकड़मों से धन कमाने वालों को तो आदर-सम्मान मिलता है, मेहनत करने वालों को हिकारत से देखा जाता है। यह उन मजदूरों के संत्रास की भी अभिव्यक्ति है, जो जिंदगीभर दूसरों के लिए बड़ी-बड़ी इमारतें बनाते रहते हैं, लेकिन अपना छोटा-सा मकान नहीं बना पाते।
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छा गए प्रकाश झा
'मट्टो की साइकिल' में अनीता चौधरी और आरोही शर्मा ने भी अहम किरदार अदा किए हैं, लेकिन यह पूरी तरह से प्रकाश झा ( Prakash Jha ) की फिल्म है। वे जितने अच्छे फिल्मकार हैं, उतने अच्छे अभिनेता भी हैं, यह इससे पहले भी कुछ फिल्मों (जय गंगाजल, सांड की आंख) में देखा जा चुका है। इस फिल्म में उनका अभिनय और निखर कर सामने आया है, तो शायद इसलिए कि मजदूरों के हालात का उन्होंने काफी पहले गहन अध्ययन कर रखा है। शैवाल की कहानी 'कालसूत्र' पर उन्होंने 1985 में 'दामुल' बनाई थी, जो बंधुआ मजदूरों पर मार्मिक दस्तावेज है। इसे नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया था। 'मट्टो की साइकिल' भी कुछ अवॉर्ड प्रकाश झा की झोली में डाल सकती है।
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