19 साल से Oscar में नहीं मिला किसी मूवी को नामांकन, इस बार भी भारत की आस निराश भई

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-दिनेश ठाकुर

अमीर कजलबाश फरमा गए हैं- 'मेरे जुनूं का नतीजा जरूर निकलेगा/ इसी सियाह समुंदर से नूर निकलेगा।' भारतीय सिनेमा बरसों से ऑस्कर अवॉर्ड ( Oscar Awards ) में अपने लिए नूर निकलने का इंतजार कर रहा है। ऑस्कर है कि हाथ आता नहीं। इस बार भी उम्मीदों पर पानी फिर गया। भारत की अधिकृत दावेदार 'जल्लीकट्टू' पहले ही राउंड में ऑस्कर की दौड़ से बाहर हो गई। इस मलयालम फिल्म से बड़ी उम्मीदें थीं। कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसकी काफी तारीफ हुई थी। ऑस्कर वालों ने तमाम तारीफों को दरकिनार कर इसे 15 फिल्मों की फेहरिस्त में शामिल करने के लायक भी नहीं समझा। इनमें से अगले महीने पांच अंतिम दावेदार फिल्में चुनी जाएंगी। फिर किसी एक के हिस्से में ऑस्कर की ट्रॉफी आएगी।

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अब तक किसी भारतीय फिल्म ने नहीं जीता ऑस्कर
भारतीय सिनेमा के नुमाइंदे 'जल्लीकट्टू' के साथ इस सलूक को लेकर ऑस्कर वालों को जली-कटी सुनाएंगे। विदेशी फिल्मों से अपनी फिल्मों के पिछडऩे के कारणों को टटोलने की जहमत नहीं उठाएंगे। यह जहमत तो 20 साल पहले ही उठाई जानी चाहिए थी, जब अंतिम पांच में पहुंची हमारी 'लगान' को पीछे छोड़कर बोस्निया की 'नो मैन्स लैंड' ऑस्कर की ट्रॉफी ले उड़ी थी। बोस्निया करीब 33 लाख की आबादी वाला छोटा-सा देश है। उसने 2001 में सिर्फ एक ही फिल्म 'नो मैन्स लैंड' बनाई थी। भारत में हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में हर साल करीब डेढ़ हजार फिल्में बनती हैं। अब तक एक भी फिल्म ऑस्कर नहीं जीत सकी। कथ्य और सम्पूर्ण प्रस्तुति (टोटल ट्रीटमेंट) की कसौटी पर विदेशी फिल्मों के मुकाबले हमारी फिल्में कहां हैं, यह इससे पता चलता है कि अब तक सिर्फ तीन भारतीय फिल्मों 'मदर इंडिया', 'सलाम बॉम्बे' और 'लगान' को ऑस्कर का नामांकन हासिल हुआ है। पिछले 19 साल में किसी भारतीय फिल्म को नामांकन तक नसीब नहीं हुआ।

ऑस्कर विशेषज्ञों को रास नहीं ये फिल्में
'लगान' के बाद संजय लीला भंसाली की 'देवदास' (शाहरुख खान, ऐश्वर्या राय बच्चन, माधुरी दीक्षित) को ऑस्कर के लिए भेजा गया, तो वहां यह फिल्म देखकर विशेषज्ञों को हैरानी हुई कि भारत जैसे बड़े देश में अब भी पलायनवादी सोच वाली फिल्में बन रही हैं। विधु विनोद चोपड़ा की 'एकलव्य : द रॉयल गार्ड' (अमिताभ बच्चन, संजय दत्त, विद्या बालन) देखकर ऑस्कर के विशेषज्ञ यही नहीं समझ पाए कि यह फिल्म क्या कहना चाहती है। साल-दर-साल भेजी गईं 'आम्रपाली', 'मंथन', 'शतरंज के खिलाड़ी', 'पायल की झंकार', 'सागर', 'परिंदा', 'रुदाली', 'जीन्स', 'अर्थ', 'हे राम', 'बर्फी', 'पीपली लाइव', 'न्यूटन', 'गली बॉय' आदि भी पहले ही राउंड में ऑस्कर की दौड़ से बाहर होती रहीं।

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रेवडिय़ों की तरह बंटते हैं देशी अवॉर्ड
हर साल ऑस्कर की दौड़ से भारतीय फिल्म के बाहर होने पर कुछ फिल्म विशेषज्ञ यह राग भी अलापते हैं कि भारतीय सिनेमा को ऑस्कर की क्या जरूरत है। यह 'अंगूर खट्टे हैं' वाली सोच है। इस सोच की उपज वे देशी अवॉर्ड समारोह भी हैं, जिनमें ट्रॉफियां रेवडिय़ों की तरह बांटी जाती हैं। समारोह में फड़कता हुआ 'आइटम' पेश करो और ट्रॉफी लो। ऑस्कर वाले रेवडिय़ां नहीं बांटते। वहां नियमों का सख्ती से पालन होता है। हर साल बेहतरीन से बेहतरीन चुनने पर जोर रहता है। इसीलिए 93 साल से ऑस्कर की प्रतिष्ठा शिखर पर है।



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