Manoj Bajpayee की 'साइलेंस' का डिजिटल प्रीमियर 26 मार्च को, तलाश लापता किरदार की

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-दिनेश ठाकुर

सत्रहवीं सदी के जापान में ईसाई धर्म प्रचारकों पर बड़े जुल्म ढाए गए। कई प्रचारकों को वहां पहचान छिपाकर रहना पड़ा। कुछ 'लापता' हो गए। हॉलीवुड की 'साइलेंस' (2016) में ऐसे ही एक लापता धर्म प्रचारक की तलाश की कहानी पेश की गई। हर देश अपने इतिहास के काले पन्नों को पर्दे में रखना चाहता है। इस तरह की पुरानी बातें निकलने पर इनके दूर तक जाने का खतरा रहता है। बरसों बाद आज भी जापान न खुद इन पन्नों को पलटता है, न दूसरों को पलटने की इजाजत देता है। इसीलिए हॉलीवुड वालों को 'साइलेंस' की शूटिंग जापान के बजाय इसके पड़ोसी ताइवान में करनी पड़ी। उसी तरह, जैसे दीपा मेहता को वाराणसी की पृष्ठभूमि वाली 'वाटर' की शूटिंग श्रीलंका में करनी पड़ी थी।

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शॉर्ट फिल्म 'टीस्पून' से बटोरी थीं सुर्खियां
हॉलीवुड के बाद अब बॉलीवुड ने भी 'साइलेंस' बनाई है। नाम के अलावा इसका हॉलीवुड की फिल्म से कुछ लेना-देना नहीं है। हां, यह भी एक लापता किरदार की तलाश का किस्सा सुनाएगी। निर्देशक अबन भरुचा देवहंस की यह पहली फीचर फिल्म है। उनकी शॉर्ट फिल्म 'टीस्पून' (2015) ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं। 'डियर जिंदगी' (शाहरुख खान, आलिया भट्ट) में वह छोटा-सा किरदार भी कर चुकी हैं। कुछ नए निर्देशक हवा के ताजा झोंकों की तरह आते हैं। आम ढर्रे से हटकर उनकी फिल्में दर्शकों से दोस्ताना रिश्ते कायम करना चाहती हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि अबन भरुचा की 'साइलेंस' भी इसी तरह की कोशिश होगी। अगर सब कुछ ठीक रहा तो 26 मार्च को इसका डिजिटल प्रीमियर होगा।


रहस्य कथा का ताना-बाना
'साइलेंस' रहस्य कथा है। एक महिला रहस्यमय ढंग से लापता हो जाती है। दूसरे दिन उसका शव मिलता है। कुछ लोगों ने इस हत्या पर चुप्पी साध रखी है। ऐसे लोगों को लेकर ही जॉन एलिया ने कहा था- 'बोलते क्यों नहीं मेरे हक में/ आबले (छाले) पड़ गए जुबान में क्या।' पुलिस अफसर नायक (मनोज बाजपेयी) लापता हत्यारे की तलाश में जुटते हैं। किस्से में कुछ और मोड़ डालने के लिए प्राची देसाई, अर्जुन माथुर, साहिल वैद, अमित ठक्कर आदि मौजूद हैं। तीन साल पहले आई मनोज बाजपेयी की 'मिसिंग' में भी एक लापता किरदार का किस्सा था। उस फिल्म में तब्बू ने काफी जलवे बिखेरे। फिर भी फिल्म बिखर गई। बनाने वाले इसे साइकोलॉजिकल थ्रिलर बता रहे थे। फिल्म देखने के बाद भेद खुला कि इसमें 'थ्रिल' ही लापता है।

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थीम से नहीं भटकतीं हॉलीवुड की सस्पेंस फिल्में
हिन्दी में ऐसी सलीकेदार सस्पेंस थ्रिलर बहुत कम बनी हैं, जिन्हें देखते हुए आप करवट बदलना भूल जाएं। जैसे राजेश खन्ना की 'इत्तफाक' है। विद्या बालन की 'कहानी' या नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी की 'महारथी' है। 'इत्तफाक' की कहानी ऋषि कपूर की 'खोज' में दोहराई गई। चार साल पहले रीमेक भी आया। दोनों बार मूल फिल्म वाली बात पैदा नहीं हो सकी। कसी हुई सस्पेंस फिल्मों के मामले में हॉलीवुड काफी आगे है। वहां की सस्पेंस फिल्में अपनी थीम से नहीं भटकतीं। मसलन लिओनार्डो डिकाप्रियो और बेन किंग्सले ('गांधी' वाले) की 'शटर आइलैंड' में घटनाएं एक वीरान टापू के मानसिक अस्पताल के इर्द-गिर्द घूमती हैं। हर सीन में 'आगे क्या होगा' का रोमांच बना रहता है। हमारी ज्यादातर फिल्मों में दो-चार रील बाद भी पता चल जाता है कि आगे क्या-क्या होगा।



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