नामवर सिंह: हिन्दी आलोचना की वाचिक परंपरा के 'बनारसी' आचार्य का जाना

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आलोचना और साक्षात्कार विधा को नई ऊंचाई देने वाले हिंदी के जाने माने साहित्यकार नामवर सिंह का निधन समूचे हिन्दी जगत के लिए अपूरणीय क्षति है. नामवर सिंह के लिए बनारस और बनारस के लोग, यहां की बोली, भाषा और चट्टी चौराहों पर लगने वाली नियमित अड़ी का समन्वय प्राणवायु समान था. स्थानीय बोल चाल में कहें तो एक ठेठ बनारसी नामवर बनारस को जीते थे और बनारस उनको जीता हुआ देख कर खुश हो लेता था. जीवन भर में अनेकों बार उन्होंने अलग अलग मंचों से बनारस का जीवन दर्शन और अपने बनारसी जीवन की कहानियां अपने चाहने वालों को सुनायी थीं. चला गया लोक भाषा का पहरुआ  28 जुलाई 1926 को वाराणसी के जीयनपुर (अब चंदौली जनपद ) में जन्मे डॉ नामवर सिंह ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उनके छात्र जीवन के दौरान स्नातक, परास्नातक और शोध कार्य करने के क्रम में कई बार लोक भाषा को एक अलग तरीके से देखा-समझा और महसूस किया. शायद यही कारण है कि हिन्दी क्षेत्र की शिक्षित जनता के बीच मार्क्सवाद और वामपंथ के बहुत लोकप्रिय नहीं होने के बावजूद नामवर जी लंबे समय तक उनके बीच प्रतिष्ठित और लोकप्रिय बने रहे. आलोचना और साक्षात्कार विधा को नई ऊंचाई देने वाले नामवर सिंह अपने साहित्य के माध्यम से रुढ़िवादिता, अंधविश्वास, कलावाद, व्यक्तिवाद आदि के खिलाफ चिंतन को प्रेरित करते रहे. वर्षों से चले आ रहे उनके साहित्यिक अभियान के माध्यम से उन्होंने एक तरफ विचारहीनता की व्यावहारिक काट करते रहने का काम किया वहीं दूसरी तरफ वैकल्पिक विचारधारा की ओर से लोकशिक्षण करते रहने का काम भी किया. लोकभाषा की सृजनशीलता और सृजनात्मकता को अपनी लेखनी और वाणी के माध्यम से समाज के हर तबके तक पहुंचने वाले नामवर सिंह हिंदी पट्टी के साहित्य को लंबे समय तक सुभाषित बनाए रखा. बनारस के नामवर  स्वतंत्रता के कुछ वर्ष पूर्व बनारस में एक से बढ़ कर एक शिक्षण संस्थानों की आधारशिला रखी जा चुकी थी, तब 1909 में स्थापित तत्कालीन हीवेट क्षत्रिय स्कूल, जिसे इंटरमीडिएट में उदय प्रताप कॉलेज के नाम से जाना जाता था, वहां सिर्फ इंटर तक की पढ़ाई होती थी. नामवर सिंह ने 1941 से 1947 तक इस प्रतिष्ठित विद्यालय में ज्ञानार्जन किया. उस दौर में बनारस के हीवेट क्षत्रिय स्कूल का शैक्षिक परिवेश अद्भुत था और नामवर के जीवन में भी इस परिवेश की महत्वपूर्ण भूमिका रही. लंबे समय इस विद्यालय के प्राचार्य ब्रिटिश मूल के अंग्रेज अफसर हुआ करते थे, लेकिन स्वतंत्रता से कुछ वर्ष पहले इस संस्थान को बाबू जगदीश प्रसाद सिंह या जे.पी. सिंह के रूप में पहले भारतीय प्राचार्य मिले. वे सेंट जोन्स कॉलेज, आगरा के पढ़े थे और धाराप्रवाह अंग्रेजी पढ़ाते थे. उस दौर में बनारस के आम जनमानस में यह लोक धारणा थी कि या तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ एस. राधाकृष्णन सबसे अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं और या फिर जे.पी. सिंह. नामवर पर जेपी सिंह की ओजपूर्ण वाणी और वाचन क्षमता का भरपूर प्रभाव पड़ा और उन्होंने उस दौर में ही विद्यालय की हर संगोष्ठी और साहित्यिक सभा में भाग लेना शुरू कर दिया. त्रिलोचन और नामवर नामवर के हीवेट क्षत्रिय स्कूल के छात्र जीवन के दौरान उनके विद्यालय से कुछ दूर सेंद्रल जेल रोड पर ‘साधना कुटीर’ नामक भवन में त्रिलोचन किराए पर रहा करते थे. किसी माध्यम से नामवर की उनसे मुलाकात हुई और उसके बाद त्रिलोचन से नियमित मुलाकातों का सिलसिला चल पड़ा और इसका गहरा प्रभाव नामवर पर पड़ा. त्रिलोचन ने उन्हें खड़ी बोली में लिखने को उत्प्रेरित किया, और वे ब्रज भाषा की बजाय खड़ी बोली में कविताएं लिखने लग गए. उसी दौर में उनके विद्यालय के छात्र संघ द्वारा एक मासिक पत्रिका निकाली जाती थी जिसका नाम था ‘क्षत्रिय मित्र’. बाबू सरस्वती प्रसाद सिंह उसके संपादक थे और आगे चलकर शम्भूनाथ सिंह भी उसके संपादक हुए. कुछ समय तक त्रिलोचन ने भी उसका संपादन किया था, इसी दौर में कवि नामवर की पहली कविता ‘दीवाली’ शीर्षक से छपी. दूसरी कविता थी- ‘सुमन रो मत, छेड़ गाना!’ इसके बाद लगातार कविताएं इस पत्रिका में छपने लगीं, त्रिलोचन ने नामवर को न सिर्फ पढ़ने के लिए प्रेरित किया बल्कि आधुनिक साहित्य से भी उन्हें परिचित कराया. त्रिलोचन की ही प्रेरणा से नामवर जी ने पहली बार दो पुस्तकें खरीदीं, जिसमे से एक थी निराला की ‘अनामिका’ और दूसरी थी इलाचन्द्र जोशी द्वारा अनूदित गोर्की की ‘आवारा की डायरी’. त्रिलोचन के कारण संभव हुआ पहला काव्य पाठ  तत्कालीन बनारस के सरसौली भवन में सागर सिंह नामक एक साहित्यिक अनुरागी व्यक्ति रहते थे. उनके निवास पर प्रगतिशील लेखक संघ की एक गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें त्रिलोचन नामवर को भी ले गए थे. यहीं पहली बार शिवदान सिंह चौहान और शमशेर बहादुर सिंह से नामवर का परिचय हुआ. यह बनारस की पहली गोष्ठी थी, जिसमें नामवर ने कविता-पाठ किया. इस आयोजन में शिवदान सिंह चौहान ने एक रेडियो-रूपक पढ़ा था और शमशेर ने अपनी दो कविताएं सुनाने के पहले नरेंद्र शर्मा की एक कविता सुनाई थी, जो उस दौर में देवली कैंप जेल में कैद थे. नवयुवक साहित्यिक संघ और नामवर नामवर के छात्र जीवन के दौरान ही उनकी निकटता बाबू ठाकुर प्रसाद सिंह से हुई, वे बनारस के ईश्वरगंगी मुहल्ले में रहा करते थे और उन्होंने 1940 ई. में ‘नवयुवक साहित्यिक संघ’ नामक साहित्यिक संस्था अपने सहयोगी पारसनाथ मिश्र ‘सेवक’ के साथ निर्मित की थी. इस संस्था के तत्वावधान में हर सप्ताह एक साहित्यिक गोष्ठी होती थी, 1944 ई. से नामवर भी इस संस्था की गोष्ठियों में शामिल होने लगे. ठाकुर प्रसाद सिंह ने ईश्वरगंगी मुहल्ले में ही भारतेन्दु विद्यालय और ‘ईश्वरगंगी पुस्तकालय’ की स्थापना की थी. 1947 ई. में ठाकुर प्रसाद सिंह की नियुक्ति बलदेव इंटर कॉलेज, बड़ागांव में हो गई तब ‘नवयुवक साहित्य संघ’ की जिम्मेवारी उन्होंने नामवर और सेवक जी को दे दी. इस संस्था की गोष्ठियां ठाकुर प्रसाद सिंह के बगैर भी नामवर और सेवक जी के माध्यम से बरसों चलती रहीं और बाद में इस संस्था का नाम सिर्फ साहित्यिक संघ हो गया. इस संस्था की गोष्ठियों में बनारस के तत्कालीन प्राय: सभी साहित्यकार उपस्थित होते थे, नामवर के साथ त्रिलोचन की इसमें नियमित उपस्थिति होती थी, और इसी कारण से नामवर की काव्य-प्रतिभा के निर्माण में इस संस्था का अप्रतिम योगदान रहा. 1947 का वर्ष और नामवर 1947 ई. में जब नामवर ने इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास की कुछ ही समय में देश को स्वाधीन होते हुए देखा, इसी वर्ष बनारस में नन्ददुलारे वाजपेयी ने निराला का अभिनंदन समारोह का आयोजन किया था. इस आयोजन में हुए कवि सम्मेलन में कई तत्कालीन युवा कवियों ने काव्य-पाठ किया था. नामवर को भी निराला के समक्ष काव्य पाठ का मौका मिला और काव्य पाठ के उपरान्त निराला के हाथों उन्हें सौ रुपए का पुरस्कार भी मिला था. इस अवसर पर निराला ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ का पाठ भी किया था. नामवर पर इस आयोजन का गहरा प्रभाव पड़ा था. ठीक इसी वर्ष इलाहाबाद में प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन भी आयोजित हुआ था, जिसमें नामवर की पहली बार राहुल सांकृत्यायन से भेंट हुई. इस समारोह की अध्यक्षता राहुल सांकृत्यायन ने की थी एवं वहां अज्ञेय, सज्जाद जहीर, नेमिचन्द्र जैन, प्रभाकर माचवे आदि नामचीन साहित्यकारों ने भाग लिया था. इसी आयोजन में यशपाल ने ‘शेखर : एक जीवनी’ की कड़ी आलोचना करते हुए एक लेख पढ़ा था. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और नामवर  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातक में प्रवेश पाने के बाद नामवर सिंह विश्वविद्यालय के पास ही संकटमोचन के इलाके में स्थित एक छात्रावास में रहने लगे. उस दौर में त्रिलोचन भी सेन्ट्रल जेल रोड वाला घर छोड़कर विश्वविद्यालय के समीप के लंका मोहल्ले के अकनू भवन में रहा करते थे. नामवर ने त्रिलोचन का साथ यहां भी नहीं छोड़ा और कई वर्षों तक त्रिलोचन के साथ अक्षर स्नान और गंगा स्नान सुचारू रूप से करते रहे. जाड़ा- गर्मी और बरसाती मौसम में भी गंगा की चिकनी मिट्टी लपेटे नामवर घंटों गंगा में तैरते रहते, त्रिलोचन के साथ तैरने और पैदल घूमने का क्रम 1947 से 1951 तक रोज चलता रहा. छात्रों, नौजवानों, बुद्धिजीवियों और विद्वानों की गोष्ठियों में अपनी कविताएं बेहिचक सुनाकर जनतान्त्रिक संवेदना जगाने का काम करने वाले नामवर सिंह ने मार्क्सवाद को अध्ययन की पद्धति के रूप में, चिन्तन की पद्धति के रूप में, और समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाले मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में छात्र जीवन में ही स्वीकार कर लिया था. एक प्रखर मार्क्सवादी होने के नाते वे आत्मालोचन को भी जीवन पर्यन्त स्वीकार करके रहे और उनके व्याख्यानों और लेखन में इसके उदाहरण भी उनके चाहनेवालों समेत उनके आलोचकों को भी मिलते रहे. वाराणसी में वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य बताते हैं कि 'नामवर को बनारस की जीवन शैली ने लोक प्रेमी बनाया था और उनकी मेधा और स्मरण शक्ति ने उनके साहित्य में सदा सर्वदा उन्हें ओज देते रहने का काम किया. अल्हड होकर भी नियंत्रित रहने वाले अब नामवर स्मृतिशेष हैं , लेकिन उनके द्वारा लिखा और बोला गया ऐसा बहुत कुछ है, जिस पर निरंतर शोध होता रहेगा.' नामवर की वक्तृत्व कला का भी आनंद लंबे समय तक उनके चाहने वालों ने लिया, दशकों तक हिंदी के सर्वोत्तम वक्ता बने रहने का गौरव मिलना इस बात का साक्षी है कि एक लंबे समय काल तक नामवर के हर एक व्याख्यान में भाषा के प्रवाह के साथ विचारों की लय होती थी. विचारों के तारतम्य और क्रमबद्धता को अटूट रखते हुए नामवर ने अपने व्याख्यान में अनावश्यक तथ्यों और प्रसंगों से बच कर रहते हुए रोचकता का ध्यान रखा. उन्हें सुनने वाले बनारस की चाय की दूकान पर थे भी और दिल्ली के किसी अभिजात्य मंच पर भी थे लेकिन इस लम्बी दूरी के बीच की खाई को पाटने का काम वो बखूबी किया करते थे और शायद यही कारण था कि उन्हें सुनने वाले उनकी इस लयबद्धता से बँधे रह जाते थे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ रामाज्ञा शशिधर कहते हैं - 'हमने वाचिक परंपरा के एक मनस्वी को खोया है, सरोकार की बातें करने वाले बहुत हुए लेकिन समाज के आख़िरी तबके तक पहुंच पाना सिर्फ नामवर जी के लिए संभव हो पाया है. उनका काम उनके नाम से बड़ा है और उनका नाम हमारी और हमारे साथ बनारस की आत्मा में रचा बसा है.' नामवर सिंह के अवसान के बाद हिंदी साहित्य के अनुरागियों समेत पुरबिया संस्कृति को जीने वाले समाज के पास भी उनकी रिक्तता को भरने के लिए कोई नहीं है. अगर कुछ बचा हैं तो उनके द्वारा लिखा गया अमर साहित्य और उनसे जुड़े बनारस के कुछ कोने और कुछ मोहल्ले जहां से उनका अनुराग उनके जीवन पर्यन्त क्षीण नहीं हुआ.

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