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-दिनेश ठाकुर
मुम्बई की खिचड़ी भाषा को, जिसे टपोरियों की भाषा भी कहा जाता है, वहां बनने वाली हिन्दी फिल्मों में इतनी बार दोहराया जा चुका है कि हर कोई 'अपुन का भेजा फिरेला है', 'किधर कू जाएला है', 'अपुन बोला तू मेरी लैला', 'बटाटा बड़ा खाएला है', 'ए क्या बोलती तू' और 'बोले तो आक्खा मुम्बई फस्र्ट क्लास' जैसे जुमलों को जानता-समझता है। 'खाली पीली' भी इसी खिचड़ी भाषा की उपज है। मुम्बई में चलने वाली ज्यादातर टैक्सियां काले-पीले रंग की हैं, जिन्हें वहां 'काली पीली' कहा जाता है। शायद शब्दों की यह जोड़ी ही टैक्सी के टायरों की तरह घिस-घिस कर 'खाली पीली' ( Khaali Peeli Movie ) हो गई। इसका मतलब है- खामख्वाह, बिना बात, बेवजह, बेमकसद। शुक्रवार को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जो 'खाली पीली'आई है, उस पर यह नाम फ्रेम में फोटो की तरह बिल्कुल फिट बैठता है। बिना बात फिल्म बनाने की वजह क्या थी, मकसद क्या था, समझ से परे है।
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किसी जमाने में मनमोहन देसाई की 'नसीब' का गाना 'जिंदगी इम्तिहान लेती है/ लोगों की जान लेती है' खूब चला था। 'खाली पीली' देखने वालों के सब्र का इम्तिहान लेती है। पूरी फिल्म 'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा' की तर्जुमानी है। यूं इसे तेलुगु फिल्म 'टैक्सीवाला' (2018) का रीमेक बताया जा रहा है, इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जो आपने पहले किसी हिन्दी फिल्म में नहीं देखा हो। कहीं यह संजय दत्त की 'सड़क' जैसी है, कहीं आमिर खान की 'दिल है कि मानता नहीं' और 'रंगीला' की पटरी पकड़ लेती है तो कहीं शाहरुख खान की 'रब ने बना दी जोड़ी' के फार्मूलों पर दौडऩे लगती है। हीरो (ईशान खट्टर) टैक्सी चलाता है। हीरोइन (अनन्या पांडे) घर से भागी हुई है। दोनों टकराते हैं और उन पर रह-रहकर नाच-गाने के दौरे पडऩे लगते हैं। कुछ बदमाश दोनों के पीछे पड़े हैं। नाच-गानों से फुर्सत मिलने पर हीरो इन बदमाशों से टकराता रहता है। चूहे-बिल्ली का यह खेल क्लाइमैक्स तक चलता है और दर्शकों के पैसे हजम कर खत्म होता है।
गनीमत है कि 'जब-जब जो-जो होना है/ तब-तब वो-वो होता है' पर चहलकदमी करने वाली इस फिल्म पर सेंसर बोर्ड ने तबीयत से कैंची चलाते हुए इसकी मियाद दो घंटे से आगे नहीं बढऩे दी। कई दृश्यों को अश्लील और अभद्र बताते हुए काट दिया गया। सेंसर बोर्ड की यह सख्ती फिल्म वालों को हद में रहने का इशारा है। 'खाली पीली' के एक गाने 'दुनिया शरमा जाएगी' की शब्दावली पर कुछ हफ्ते पहले खासा विवाद हो चुका है। यूट्यूब पर इसको मिले लाखों डिसलाइक के बाद शब्दावली बदलनी पड़ी थी।
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निर्देशक मकबूल खान 'खाली पीली' में एक ही छत के नीचे कई तमाशे दिखाने की हड़बड़ाहट में लगते हैं। दर्शक एक सीन की तुक समझ पाएं, इससे पहले दूसरा बेतुका सीन टपक पड़ता है। पटकथा के नट-बोल्ट इतने ढीले हैं कि बीच-बीच में आप चाहें तो झपकी ले सकते हैं। झपकी टूटने पर कहानी वहीं चक्कर काटती मिलेगी। नाच-गाने आइटम नंबर जैसे लगते हैं। कहानी से इनका कोई लेना-देना नहीं है। एक जगह हीरो-हीरोइन ट्रैफिक जाम में फंस जाते हैं, पुलिस उनके पीछे लगी हुई है। अचानक दोनों एक स्टेज पर ठुमके लगाते नजर आते हैं। कई बार तो लगता है कि 'खाली पीली' वालों ने पहले नाच-गानों का चित्रहार तैयार किया होगा। बाद में इनके इर्द-गिर्द जानी-पहचानी घटनाएं जोड़ते चले गए। विशाल-शेखर का संगीत फिल्म की तरह एकरसता की चपेट में है। सतीश कौशिक की कॉमेडी भी गानों की तरह जबरन चिपकाई गई लगती है। यानी पूरी फिल्म में यही लगता है कि जो कुछ दिखाया जा रहा है, खाली पीली दिखाया जा रहा है।
एक्टिंग के मामले में न ईशान खट्टर ( Ishaan Khattar ) प्रभावित करते हैं, न ही अनन्या पांडे (Ananya Panday )। अनन्या को फिल्मों में आए काफी समय हो चुका है। अब उन्हें मॉडलिंग और एक्टिंग का फर्क समझ लेना चाहिए। यह भी समझना चाहिए कि मिनी कपड़ों में नाचने का नाम ही एक्टिंग नहीं है। वो दिन हवा हुए, जब ज्यादातर लोग दाग का यह शेर पढ़ते हुए फिल्म देखने पहुंचते थे- 'आईना देखके कहते हैं संवरने वाले/ आज बेमौत मरेंगे मेरे मरने वाले।' अब लोग समझदार हो गए हैं और 'अच्छी सूरत को संवरने की जरूरत क्या है/ सादगी में भी कयामत की अदा होती है' में यकीन करने लगे हैं।
- फिल्म : खाली पीली
- अवधि : 1 घंटा 59 मिनट
- निर्देशक : मकबूल खान
- लेखन : यश केसरवानी, सीमा अग्रवाल
- फोटोग्राफी : आदिल अफसर
- संगीत : विशाल-शेखर
- कलाकार : ईशान खट्टर, अनन्या पांडे, जयदीप अहलावत, सतीश कौशिक, आशीष वारंग, स्वानंद किरकिरे, अनूप सोनी आदि।
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